Friday 3 May 2019

लोकतंत्र के पर्व -मेरी दृष्टि, मेरी अनुभूति (7)

लोकतंत्र की खूबसूरती बनाम विडम्बना 
संदर्भ - कन्हैया और दिग्विजय सिंह 


लोकतंत्र यक़ीनन बहुत खूबसूरत है. किन्तु लोकतंत्र  में होने वाली हर चीज खूबसूरत होती ही है यह भी सच नहीं है. लोकतंत्र की खूबसूरती उसके लचीलेपन में है, उसकी नजाकत में है. हिंदुस्तान के इतिहास  में केंद्र और राज्यों के चुनाव में कई बार ऐसे मौके आये हैं जब मजबूत से मजबूत राजनेता के नेतृत्व में चल  रही सरकार का वोट  के माध्यम  से भोली सी दिखने वाली जनता ने  बड़ी सहजता से तख्ता पलट दिया. मैं  इसे लोकतंत्र की नजाकत ही कहना चाहूंगा.


पर कभी कभी इस खूबसूरत लोकतंत्र में गहरी विडंबनाओं से भी दो चार होना पड़ता है. तब मन बहुत खिन्न हो जाता है. 17 भी लोकसभा के लिए होने जा रहे चुनाव में भी दुर्भाग्य से ऐसे प्रकरण विद्यमान हैं.


हर चुनाव में कई दिग्गज मैदान में होते हैं, इनमें  राजनेता तो  होते ही हैं, बाहुवली, धनबली तथा ख्यातिबली (सेलिब्रेटी ) भी होते हैं और कई  बार एक अदना सा उम्मीदवार उन्हें चुपचाप जमीन चटा  देता है. और तब लोकतंत्र  की  मुस्कराहट मन  मोह लेती है.पर ऐसा हमेशा नही होता है ।कई करणो से कई बार अपराध जगत के सरताज भी निर्वाचित हो जाते हैं।उस समय लोकतंत्र की लाचारी ध्यान  में आती है ।


17 वी लोकसभा में भी दो ऐसे उम्मीदवार खड़े हैं जो राष्ट्र के गौरव ओर स्वाभिमान पर आघात करने वाली शक्तियों के आइकान हैं।पहले हैं कन्हैया कुमार जो बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे हैं।तथा दूसरे हैं दिग्विजय सिंह जो कांग्रेस के रणनीति कार हैं तथा भोपाल से चुनाव लड़ रहे हैं।कन्हैया कुमार जेएनयू में उस भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे जो “भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह”  , “भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी जंग चलेगी ,कश्मीर की आज़ादी तक जंग चलेगी जंग चलेगी” जैसे नारे लगा रहे थे।यही उनकी ख्याति का कारण भी है ।दिग्विजय सिंह वैसे तो ख्यातनाम राजनेता हैं।स्वनाम धन्य हैं।कई बातें हैं उनके बारे में कहने के लिए।पर यहाँ जो उल्लेख कर रहा हूँ ,वो है “हिन्दू आतंकवाद” की नई थ्योरी को प्रस्थापित करने की उनकी प्रतिभा ।उनकी इस हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी को पुष्ट करने के लिए कई गहरे षड्यंत्र भी रचे गए यह भी सम्भावना व्यक्त हुई है।इन षड्यंत्रों में कौन सहभागी थे अभी कहना मुश्किल है किंतु भविष्य में जब कभी पर्दा हटेगा देश के लिए बड़े शर्म की बात होगी।फ़िलहाल तो दिग्गी राजा भोपाल से दिल्ली जाने के लिए संघर्ष रत हैं।


कन्हैया कुमार ओर दिग्विजय सिंह चुनाव हारेंगे या जीतेंगे कहा नही जा सकता है।हार भी सकते हैं ओर जीत भी सकते हैं।केवल विचारधारा के आधार पर चुनाव होता तो इनकी ज़मानत जप्त होना तय थी।किंतु जाती,धन,प्रौपेग़ेंडा जिसे दिग्गिराजा ने ही शब्द दिया था “मेनेजमेंट” से चुनाव जीते जाते रहें हैं।


आजादी के 7 दशक बाद जनता बहुत परिपक्व हो चुकी है  ऐसा माना  जाता रहा है. जनता जनार्दन है. उसका निर्णय सर आँखों पर. पर मैं तो इतना ही कहना चाहता हूं की चुनाव परिणाम के बाद जो होना होगा वह  होगा पर आम देश प्रेमी जनता के लिए तो ऐसे लोग चुनाव लड़  सकते हैं, यही बड़ी विडम्बना है. 


Thursday 2 May 2019

अभी चुके तो चूकते ही जायेंगे

मसूद अजहर वैश्विक आतंकवादी घोषित हो गया. आश्चर्य है भारत की प्रमुख राजनितिक पार्टी के अध्यक्ष का कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. अन्य राजनितिक दलों  से कैसे उम्मीद करें? 

जनता राहुल की मजबूरी समझती है. युद्ध क्षेत्र में प्रतिद्वंदी  कीतारीफ़ कैसे की जा सकती है?  पर तारीफ़ करना जरुरी कहाँ हैं?  सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट पर एयर स्ट्राइक की भी तो तुरंत सीमित तारीफ कर के कुछ समय बाद प्रमाण मांगना शुरू कर दिए थे. सरकार की नहीं पर सेना की तारीफ तो की थी. अभी भी विदेश विभाग के ब्यूरोक्रेट्स की तारीफ कर देते, अमेरिका को श्रेय दे देते, कुछ नहीं तो अब होगा न्याय की तर्ज पर चीन ने न्याय किया है कहते हुए असली श्रेय उसे दे देते.


लगता है की कांग्रेस के वॉर रूम के लड़ाके थक गए हैं . एक लड़ाके तो भोपाल में सीधे "हिन्दू आतंकवादी (? )"के खिलाफ युद्ध रत हैं. स्वाभाविक है उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती थी. किन्तु बाकी लोग कहाँ हैं?  और  यह कोई आकस्मिक होने वाली एयर स्ट्राइक तो थी नहीं. 1-2दिन पहले से खबर थी. और चीन दूतावास से तो राहुल जी के भी सम्बन्ध हैं. वहां तो उनका आना जाना हैं. उन्ही से पूछ लेते क्या होने जा रहा है?


हाँ यह जरूर हो सकता है की दिल्ली के लड़ाके सुप्रीम कोर्ट में व्यस्त हों. आखिर जब शहजादे ही घीरे  हों तो रणनीति यहीं कहती है की सबसे पहले उन्हें ही बचाया जाएं. दीक्कत तो यहीं है की शहजादे अभी युद्ध करना सिख रहे हैं. अभी भी छोटी बड़ी गलतियां कमोबेश रोज हों जाती हैं. तो किधर किधर ध्यान दें महारथी.अब सुप्रीम कोर्ट का भरोसा रहा नहीं. कब क्या न्याय कर दें. अब होगा न्याय की तर्ज पर नागरिकता पर कोई फच्चर फंस गया तो क्या होगा?  जमानत पर पहले से हैं.अवमानना प्रकरण में ऐसे कोई कोर्ट व्यवहार करता है क्या?


शायद लड़ाके सोच रहे होंगे अब ज्योतिषियों की ही बातें मान लें. अभी दिन अच्छे नहीं चल रहे है. इंग्लैंड तक के कोर्ट माल्या और नीरव को छोड़ नहीं रहे हैं, नहीं तो कुछ बड़े शस्त्र  मिल जाते. भारत के कोर्ट भी न्याय करने पर तुले हैं. ज्योतिषियों के अनुसार कुछ दिन रुक जाएं तो उसीमे भला है. 23 मई  के बाद सबका जबाव दें देंगे. सत्ता है तो सब कुछ है. तब अच्छे से जवाब दें देंगे.


ख्याल तो अच्छा है पर जनता परीक्षा के बाद उत्तर पुस्तिका में चार पन्ने जोड़ने को तैयार नहीं है. परीक्षा तो 23 के पहले के पाठ्यक्रम  पर ही होगी और मूल्यांकन भी मॉडल आंसर  के आधार पर.

अभी चुके तो चूकते ही जायेंगे.

Tuesday 16 April 2019

लोकतंत्र के पर्व-मेरी दृष्टि ,मेरी अनुभूति (6)

नेताओ को बोलने दो ताकि जनता उन्हें समझ सके
चुनाव आयोग ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ओर ,बसपा प्रमुख मायावती पर  क्रमशः 72 ओर 48 घंटे तक चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया है। योगी आदित्यनाथ या उनकी पार्टी भाजपा का तो कोई बयान नही आया है पर मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस कर के चुनाव आयोग के इस निर्णय का विरोध किया है

उन्होंने मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए एक महत्वपूर्ण विषय उठाया है कि उन्हें उनका पक्ष रखने का मौका नही दिया गया है,ओर यह चुनाव आयोग का एक तरफा फैसला है।निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो मायावती के इस तर्क पर सहमत हुआ जा सकता है कि "पक्षकार को सुने बिना एक तरफा फैसला देना उचित नही है." हो सकता तहै चुनाव आयोग ने यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के भय से लिया हो।भयभीत होने पर हड़बड़ाहट में गलती होने की संभावनाए तो रहती ही हैं।

चुनाव आयोग का मूल कार्य समय पर भयमुक्त वातावरण में निष्पक्ष चुनाव करना है। भयमुक्त वातावरण के लिए शासन ,सत्तारूढ़ दल,संगठित आपराधिक ताकते,आतंकवादी संगठन,बाहुवली एवं धनकुबेरों  को नियंत्रित करने हेतु आवश्यक निर्देश जारी करने ,व्यस्थायें करने एवं जरूरी कदम उठाने उसके स्वाभाविक कार्य हैं। इसी प्रकार स्वस्थ वातावरण में चुनाव प्रक्रिया पूर्ण हो इसलिए सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए भी आचार संहिता के अंतर्गत अनेक निर्देश जारी किए जाते हैं।
निष्पक्ष चुनाव कराने के दबाव में चुनाव आयोग कई ऐसे नियम बनाता है जो अव्यवहारिक तो हैं ही,अतार्किक भी हैं।इसमें से एक हैं चुनाव प्रचार के लिए धन व्यय करने की सीमा।यह राशि उम्मीदवार के संदर्भ में  इतनी कम होती है कि लगभग सभी उम्मीदवारों को झूठे प्रतिवेदन प्रस्तुत करना पड़ता है।


लाचारी तो तब होती है जब कोई स्टार प्रचारक किसी चुनाव क्षेत्र में सभा या रोड़ शो करता है तो उस क्षेत्र का उम्मीदवार मंच पर नही होता है,क्योंकी मंच पर चढ़ते ही उस सभा का आधा खर्च जो निश्चित ही एक बड़ी राशि होती है,उस उम्मीदवार के खर्च में जुड़ जाता है।जबकि स्टार प्रचारक की सभा में स्वाभाविक रूप से ज्यादा मतदाता आते हैं तथा उनके लिए एक अच्छा अवसर होता है कि वे अपने उम्मीदवार को देख व सुन सकते हैं।पर इस नियम के कारण स्टार प्रचारक की सभा बिन दूल्हे की बारात जैसा दृश्य उतपन्न करता है। चुनाव आयोग के ऐसे बहुत सारे नियम हैं किंतु उनकी चर्चा फिर कभी।


फिलहाल तो चुनाव आयोग की चर्चा मायावती,योगी आदित्यनाथ ओर बाद में मेनका गांधी तथा आजम खान पर 48 से 72 घंटे तक चुनाव प्रचार पर रोक लगाने के संदर्भ में है। आरोप है कि इन नेताओं ने अपने भाषण में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगे।


देश मे जाती पंथ ओर धर्म हैं और उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं।जाती,पंथ ओर धर्म के आधार पर राजनीतिक पार्टियों के पदाधिकारी तय किये जाते है,पार्टियां अपने उम्मीदवार तय करती हैं।मंत्रिमंडल गठन के समय यह भी एक महत्वपूर्ण मानक होता है।इतना ही क्यों शासकीय नोकरियों में भी आरक्षण के माध्यम से इन पर विचार होता है।फिर चुनावी भाषणों में ही इस पर रोक क्यों ? वह भी मंचीय भाषणों में मात्र।चुनाव के समय विभिन्न जाती समूह की सक्रियता यही तो करती है।घर घर सम्पर्क ओर जातीय ,पंथीय बैठकों में यही तो होता है ,यह कौन कहता है कि उसे पता नही है ? फतवा जारी होने कोन रोक पाया है ? कुछ चीजें समाज के डर से ही रुकेंगी,सरकार ,जुडिशरी या आयोग की अपनी सीमा है।एक तरीके पर रोक लगाएंगे तो कई नए तरीके ईजाद कर लिए जाएंगे।


अपशब्द कह रहें हैं तो कहने दीजिये ना,जनता उस पर फैसला करेगी ना ? मोत के सौदागर,चाय वाला पर जनता ने फैसला लिया है ना।दिल और दिमाग की बात जुबान पर आने दीजिये ना।तभी तो जनता अपने नेता को ठीक से पहचान पाएगी।शब्दों पर लगाम लगाकर आप किसी की नीति और नियत ठीक नही कर सकते।जनता निर्णय करेगी और ठोकर भी खाएगी ,पर इसी से जनता परिपक्व निर्णय लेना सीखेगी। निर्वाचन आयोग अपने मूल काम र ध्यान केंद्रित करे यथा मतदान केंद्र तक सभी मतदाता पहुंच सकें,बहुत आराम से निर्भीक होकर मतदाता मतदान कर सके ।आज भी कई मतदाता लंबी लाइन देख मतदान केंद्र से वापस आ जाते है,आज जब लाइनों में लगने की आदत धीरे धीरे समाप्त हो गई है (पहले राशन की दुकानों, गैस सिलेंडर, रेलवे रिज़र्वेशन, बिजली,टेलीफोन बिल भुगतान के लिए मजबूरी में ही क्यों ना हो लाइन में लगने की आदत पड़ जाती थी) इस पर आयोग को ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। इसी क्रम में मतपत्रों की गिनती(आजकल EVM से) शून्य भूल के साथ हो यह सुनिश्चित करना चाहिए।यह मूलभूत कार्य वह ठीक से करता है तो उसकी वाहवाही है,अन्यथा तो वह भी विवादों में पड़ता रहेगा।(ओर यदि कार्यवाही करना ही हो तो निर्वाचन आयोग की जानकारी में नियमों के तहत प्रशासन ही करे.)

Wednesday 10 April 2019

लोकतंत्र के पर्व - मेरी दृष्टि, मेरी अनुभूति (5)

जनता की चाह काले धन के प्रभाव से मुक्त हों आम चुनाव

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के निकट सहयोगी के यहाँ इनकम टेक्स के छापे में करोड़ों रुपए मिले।आजकल इतना नगद रखना ग़ैर क़ानूनी है।ओर कोई समय होता तो यह माना जाता की यह सम्बंधित व्यक्तियों द्वारा अर्जित काला धन है।किंतु समय चुनाव का है ओर जिनके यहाँ छापे पड़े हैं ,उनकी कांग्रेस नेताओं से निकट्ता है।स्वाभाविक रूप से कांग्रेस परेशान है।निश्चित रूप से कांग्रेस शर्मसार होती ,यदि दुनिया को यह पता ना होता की भारत के आम चुनाव धन के प्रभाव से मुक्त हैं।

कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि इस के जवाब में वह कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दे पाएगी।कांग्रेस के बड़े नेता अहमद पटेल यह ज़रूर कह रहे हैं की मोदी जी आज सरकार में हैं (कांग्रेस के लिए यह है तो बड़ी पीड़ा की बात) ओर वे सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं।भारत की चतुर जनता वो जो नहीं कह रहें हैं उसे भी सुन रही है की “हम सत्ता में होते तो ऐसा नहीं होता ओर यह भी की हम कभी सत्ता में आएँगे तो भाजपा वालों तुम्हारी खेर नहीं होगी”।

मोदी शाह की अपनी विशिष्ट ओर विचित्र शैली है।राज करने की भी ओर लड़ाई करने की भी।अनोखपन ,आश्चर्य ओर चोकाना यह उनके परिणाम के सह उत्पाद होते हैं।बाद में क्या होगा शायद यह उनके विचार का हिस्सा नहीं होता है।जो करने जा रहे हैं वह ठीक है या नही शायद इसे वे दस बार सोचते होंगे।नोटबंदी,जीएसटी से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक,एअर स्ट्राइक सब ऐसे ही निर्णय हैं।लेने के देने भी पड़ सकते थे,यदि असफलता मिलती तो।पाक के मामले में पाक क्या करेगा,दुनिया क्या करेगी ? इन आशंकाओं से भयभीत रहते तो ये साहसिक निर्णय भारत नहीं कर पाता।व्यापारियों की कही जाने वाली पार्टी की सरकार द्वारा नोटबंदी ओर GST भी आत्मघाती क़दम ही तो कहा जाएगा ना।

हाल के छापों से कांग्रेस थोड़ी परेशान तो ज़रूर होगी।भारत के चुनाव आकार में यह राशि बहुत बड़ी तो नही है पर बहुत छोटी भी नही है।पर चुनाव के बाद इस प्रकरण में जो केस चलेंगे उसमें से निकलना अब आसान नहीं है।जेलों ने अब राजनेताओं के घर देख लिए हैं।

सरकार की निष्पक्षता पर सवाल तो ज़रूर उठेगा।चुनावों के धुरंधर लड़ाके यह ज़रूर फुसफुसा रहे होंगे की बेइमानी के इस दोर में मोदी जी आपने ईमानदारी तो नहीं दिखाई।भविष्य के लिए कई भाजपा नेता भी आशंकित हो सकते हैं।कुछ भी हो यह तो तय है की लड़ाई तो अनेतिकता के ख़िलाफ़ है,लड़ाई का आधार नैतिक अनैतिक कुछ भी हो सकता है।आगे घात प्रतिघात भी होंगे।पर भारत की जनता जानती है की इस घात प्रतिघात में भारत के चुनावों में घुन की तरह घर कर चुका काले धन का प्रभाव विराट से न्यूनतम हो सकेगा जो अन्यथा चुनाव आयोग के लाख प्रयासों के बाद भी नियंत्रण में नही आ पा रहा है।

यह भी सच है की काले धन से चुनावों को प्रभावित करने का श्रेय भी परिस्थितिजन्य साक्ष्य के सिद्धांत के अनुसार उसी दल को जायेगा जो आज़ादी के बाद एक लम्बे अरसे तक निर्बाध शासन करता रहा हो।जो बोया है युगों के बाद भी  भाावी पीढ़ी को कुछ तो दंड भोगना ही पड़ेगा ना।

फ़िलहाल तो खाज में कोढ यह है कि भोपाल के छापों के बाद चुनाव आयोग ने राजस्व विभाग को बुलाकर निर्देश दिये हैं की वह चुनाव में काले धन के उपयोग को रोकने के लिए कड़ाई से प्रयास करे।

भारत का जन-मन तो यही चाहता है की भारत का लोकतंत्र काले धन की छाया से जल्दी से जल्दी मुक्त हो
।भारत की चेतना ने कमर के नीचे प्रहार करने के भीम के कृत्य को अनैतिक मानते हुए भी अधर्म नही माना।


भीमा की शहादत पर “हम भारत के लोगों “ का जन संकल्प

एक ओर शहादत !

ना यह पहली थी ना आख़िरी होगी।सवाल यही है कि वो कौन सी शहादत होगी जो आख़िरी होगी।बस्तर में चुनाव प्रचार करना घोषित ख़तरा है।फिर भी भीमा मंडावी जैसे सेंकडो राजनीतिक कार्यकर्ता यह करते हैं।भीषण ख़तरों के बीच ऐसे लोकतांत्रिक कर्म करते रहने की प्रेरणा ओर साहस  ही उम्मीद जगाता है एक दिन माओवादी आतंक को परास्त होना ही पड़ेगा।

पर यह तो भविष्य की बात है।भीमा मंडावी की घृणित हत्या पर आज मैं किस से प्रश्न पूछूँ ?नक्सलियों तक तो पहुँचने का रास्ता मुझे नहीं मालूम।उनके फ़ोन ,फ़ेसबूक कुछ भी नहीं मालूम।पर कुछ तो लोग होंगे जो धूर जंगल में रहने वाले नक्सलियों को रसद पानी ,हथियार से लेकर रणनीति बनाने में मदद करते होंगे ?ओर ये लोग तो शहरों में ,महानगरों में ,राजधानियों में रहते होंगे।विश्विद्यालयों,कोर्ट-कचहरी,मीडिया में काम करते होंगे।मैं इन्हीं से प्रश्न पूछना चाहता हूँ।

बहुत सरल प्रश्न हैं मेरे ।  भारत में बिना लाइसेंस का हथियार रखना क़ानून अपराध है।क्या आप लोग उस किताब को मानते हैं,जिसमें यह क़ानून लिखा है ? यदि हाँ तो आप उनकी वकालत कैसे कर सकते हैं जो आधुनिक स्वचालित हथियारों का ज़ख़ीरा लेकर शांत ओर सुंदर जंगलों में राक्षसी राज्य स्थापित कर रहे हैं।ओर यदि आप उनका समर्थन करते हैं तो फिर आपको शहरी नक्सली शब्द से सम्बोधित करना क्यों ग़लत है ? फिर भीमा से लेकर झीरम के शहीदों तक की वीभत्स हत्या  के सह अपराधी आपको भी क्यों ना माना जाये ? एक मनुष्य शरीर की हत्या का ही सवाल हो तो आप सह अपराधी हैं ।किंतु पुलिस की गोली से मरे या नक्सलियों की गोली से मरें,मरना तो वनवासियों को ही है, ऐसी जटिल परिस्थिति पैदा करने के मुख्य आरोपी तो आप ही हो ना ?

आप ही हो ना जो अभिव्यक्ति की आज़ादी,महिलाओं का सम्मान,बच्चों के बचपन  ओर मानव मात्र के अधिकार की लड़ाई लड़ते हो।आप ही हो ना जो संविधान की रक्षा के सजग प्रहरी बनते हो। इन संदर्भित मुद्दों  पर  भीमा  की मासूम पत्नी, अबोध बच्चों,बुज़ुर्ग  माँ  बाप,के अधिकार हनन के दोषी आप नहीं हो क्या  ? उन वनवासियों जो चुनाव के माध्यम से अपनी सरकार चुनना चाहते हैं,अपने दलों  के उम्मीदवार के प्रचार के लिए जनता के बीच जाना चाहते हैं उनके संवेधानिक अधिकारों के लिए आप  जब  षड्यंत्रकारी चुपी  ओड लेते हो तो सच में आप देश के सबसे बड़े शत्रु नज़र आते हो।

क़सम भीमा ओर झीरम जैसे अनेको शहीदों की एक दिन हम भारत के लोग  आपके बेनक़ाब कर ही देंगे ओर  आपकी कुत्सित,राक्षसी प्रवृति  जो अलगाव वाद ,आतंकवाद को अपना अस्त्र  साधन  मानती है, के  जड़-मूल  से उन्मूलन  के साथ  अपने भीमा के बस्तर को ,भीमा के भारत को,भीमा के  लोकतंत्र को  पुनः एक नई आभा के साथ
प्रस्थापित  करेंगे।

युद्ध  क्षेत्र अब केवल बस्तर  नहीं होगा, पूरा भारत होगा। विश्वविद्यालयों के परिसर,कोर्ट रूम,मानवाधिकार ओर महिला आयोगों के कार्यालय, टीवी चेनलों के बहस स्थलों से लेकर पत्रकारों की कलमों तक,हर उस जगह  जो आपके षडयन्त्र स्थल हैं  वहाँ हम भारत के लोग जो मानव मात्र से प्यार करते हैं,जो विविधता में  एकात्मता  का दर्शन करते हैं ,जो अपनी आंतरिक विषमताओं,कमज़ोरियों को लोकतंत्र के उपकरणों से हल  करना जानते हैं,आपको बेनक़ाब करेंगे,आपको परास्त करेंगे।

भीमा की शहादत पर  हम भारत के लोगों का यही जन संकल्प है।


Friday 5 April 2019

लोकतंत्र के पर्व -मेरी दृष्टि ,मेरी अनुभूति (4)

गुणात्मक मतदान के लिए “आम मतदाता शक्ति” सक्रिय हो 


प्रश्न थोड़ा अटपटा है।थोड़ा नहीं शायद बहुत ज़्यादा अटपटा है।क्या आम मतदाता को चुनाव लड़ाने की सक्रिय भूमिका में आना चाहिये ?

सामन्यत: प्रत्याक्षी चुनाव लड़ता है,राजनीतिक दल चुनाव लड़ता है  ओर राजनीतिक दल का कार्यकर्ता
चुनाव  लड़ाने की भूमिका में  रहता है। बोलचाल की भाषा में भी इसी आशय के शब्द प्रयोग होते हैं।

चुनाव  के बाद आने वाली सरकार से आम मतदाता के जीवन में बड़ा परिवर्तन आता है।सरकार के कार्यों, कार्यशैली  ,नीति ओर निर्णयों का असर बहुत व्यापक होता है। कई बार आम आदमी यह सोचता है की मुझे सरकार से क्या  मतलब ? अपनी मेहनत से दाल रोटी कमाता हूँ तथा  अपने में मस्त रहता हूँ ।सामन्यत: वे लोग जो शासकीय सेवा में नहीं हैं  तथा जिनका व्यापार व्यवसाय सरकार के साथ नहीं होता है  उनकी सोच भी यही रहती है।इतना ही नहीं सरकारी व्यवस्था का छोटा कर्मचारी भी सरकारों से रोज़मर्रा के काम में अप्रभावित रहते हैं।

परंतु थोड़े ही व्यापक नज़रिए से सोचें तो हम पाते हैं की शिक्षा,स्वास्थ्य, बिजली,पानी सड़क,यातायात, क़ानून व्यवस्था से लेकर रोज़गार के अवसर,महँगाई पर्यावरण,जैसी कई बातें  हमारे जीवन को सरल या दुष्कर बनाती हैं। यहां तक की  सरकार की नीतियों के कारण जीविकोपार्जन के लिए हमारे व्यापार व्यवसाय पर भी अनुकूल या प्रतिकूल असर पड़ता है।इतना ही नहीं  आंतरिक ओर बाह्य सुरक्षा ,विदेश नीति , दुनिया में भारतियों का सम्मान,विश्वसनीयता जैसे कई मुद्दे होते हैं जो प्रत्यक्ष,अप्रत्यक्ष रूप से कम  या ज़्यादा  हर देशवासी को  उसके वर्तमान या भविष्य को प्रभावित करता है।

इसलिए अच्छी सरकार आए,काम करने वाली सरकार आए,भ्रष्टाचार  को नियंत्रित करने वाली सरकार आए,देश का विकास करने वाली सरकार आए,देश की सुरक्षा को मज़बूत करने वाली सरकार आए,देश की अर्थ व्यवस्था को मज़बूत करने वाली सरकार आए,देश के सम्मान को बढ़ाने वाली सरकार आए, लोकतंत्र  में हर मतदाता नागरिक की यह ज़िम्मेदारी है। केवल मतदान करने मात्र से यह ज़िम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती है।एक समय जब बहुत कम मतदान होता था ,मतदान करना ही महत्वपूर्ण लक्ष्य माना गया किंतु अब जब मतदान प्रतिशत बड़ रहा है,गुणात्मक मतदान की ओर ध्यान खिंचना होगा। गुणात्मक मतदान के दो पहलू हैं।पहला है बहुत सोच समझकर ,अनेक बिन्दुओं का विश्लेषण कर किसे वोट देना है इसका निर्णय कर मतदान करना तथा  दूसरा है अपने  सम्पर्कित्त  वयस्क नागरिकों से भी अपने चिंतन को साझा कर  उन्हें भी व्यापक ओर दूरगामी सोच के साथ  मतदान के लिए प्रेरित करना।

इस प्रकार जब आम मतदाता जो किसी राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता नहीं है,वह भी स्वयं प्रेरणा से,बिना किसी निहित स्वार्थ के ,प्रयास पूर्वक  सम्पर्कित लोगों से चर्चा करता है ओर उन्हें भी गुणात्मक मतदान के लिए प्रेरित करताहै तो हम यह मान सकते हैं की आम मतदाता भी चुनाव लड़वाने की सक्रिय भूमिका में आ गया है।

सामन्यत: चुनाव लड़वाने का काम राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का माना जाता है।किंतु पुराने होते लोकतंत्र में समय के साथ कुछ अच्छी चीज़ें भी आती हैं ओर कई कमज़ोरियाँ भी घर कर जाती हैं।आज लगभग सभी राजनीतिक दल अपने अपने दलों में स्थापित हो चुकी विकृतियों से परेशान हैं।एक प्रमुख विकृति है गुटबाज़ी। सभी राजनीतिक दल शायद ही इस बात से इंकार कर सकेंगे की उनका दल इस बीमारी से पूर्णत: मुक्त है।कुछ दलों में ऊपर के स्तर पर है,कुछ दलों में नीचे के स्तर पर है,कुछ दलों में चहुँओर है।कुछ दलों में आंशिक है कुछ दलों में पूर्णता में है।कुछ दलों में इलाज हो सकने की स्थिति में है कुछ दलों में लाइलाज है।दूसरा है केड़र में नैतिक मूल्यों का ह्रास।जी हाँ बात तो कड़वी है पर है लगभग सच।केड़र विचारों के प्रति निष्ठावान हो तो भी व्यवहारिक धरातल पर वह वर्तमान या भविष्य के अपने लाभ-हानि के गणित में उलझ जाता हैतीसरा है जाती का विचार।कार्यकर्ता अपनी पार्टी की विजय तो चाहता है पर  अपनी जाती के हित  के साथ ।कई बार कुछ कार्यकर्ता जाती के नाम पर सेबोटेज़ भी कर जाते हैं।चौथा है धन का प्रभाव। यह राजनीतिक दलों के लिए सबसे गंभीर समस्या उभर कर आ रही है।आज सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं चुनाव प्रचार के लिए पूर्ण सुविधा चाहते हैं।इतना ही नहीं कुछ कार्यकर्ता तो मर्यादा को लाँघ कर चुनाव ख़र्चे का व्यक्तिगत उपयोग भी कर लेते हैं।ऐसी ही कई विकृतियों के कारण आज राजनीतिक दल कई परेशानियों ओर अनुचित दबावों के मध्य चुनाव संचालन के लिए मजबूर हैं।ओर ऐसा भी नहीं है की सारा दोष केड़र का है,इसकी शुरुआत कभी ना कभी ,किसी ना किसी कारण से दलों के शीर्ष से ही हुई है।ओर आज भी दलों के वरिष्ठ कहे जाने वाले नेताओं  की ओर से इन प्रवृत्तियों के प्रति स्वीकार्यता प्राप्त है।

एक ओर महत्वपूर्ण ओर लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यजनक तथ्य यह है की पुराने होते लोकतंत्र के साथ बहुसंख्यक मतदाताओं की आदतों को प्रमुख राजनीतिक दलों ने ही बिगाड़ दिया है।शराब,पैसा,जातिवाद से लेकर जाती,सम्प्रदाय के आधार पर फ़तवे चुनाव परिणामों को बहुत बड़ी मात्रा में प्रभावित करते हैं।इतिहास में इन बातों से लाभ ले चुके  दल भी आज इन बुराइयों के बोझ तले दब कर बुरी तरह हाँफ रहे हैं।

अच्छे व्यक्तियों को जिताने का सामर्थ्य आज भारत के राजनीतिक दलों में नहीं है।शायद ही कोई दल अपवाद हो।हर दल केवल उस व्यक्ति को टिकिट देना चाहता है जो जीत सकता है। “जीतने की सम्भावना” ही टिकिट मिलने का सबसे प्रमुख मापदंड बन चुका है।वैसे यह ग़लत नहीं है,पर क़ीस क़ीमत पर यह विचार का विषय अवश्य होना चाहिए।

ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के मूल मालिक आम मतदाता में से जागरूक,समझदार मतदाताओं की यह अहम् ज़िम्मेदारी बनती है की वे केवल मतदान के कर्तव्य तक सीमित ना रहकर अपनी सक्रिय भूमिका की ज़िम्मेदारी को समझें।बस उन्हें सावधानी यह रखना है की वे यह कार्य निष्काम भाव से करें ।चुनाव के बाद यदि वे अपने योगदान के प्रतिफल की अपेक्षा रखेंगे तो तो कोई गुणात्मक परिवर्तन उनके माध्यम से नहीं हो सकेगा।इसी प्रकार राजनीतिक दल किसे टिकिट दे इसमें भी उनकी रुचि नहीं होना चाहिए वे भी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं की विस्तारित (Extended team ) टीम ही कहलाएँगे।हाँ,प्रत्याशी घोषित होने के बाद मतदाता के अधिकतम मानदंडो को जो प्रत्याशी ओर दल पूरा करता हो उसको जिताने का प्रयास करना चाहिए।

ऐसे जागरूक मतदाताओं को निर्णय प्रक्रिया के लिए कुछ बिंदु तय करना चाहिए,जिनके आधार पर वे मतदान का निर्णय करेंगे।उदाहरणार्थ उम्मीदवार की योग्यता,सामर्थ्य ,सक्रियता,।राजनीतिक दलोंकी नीति,नियत,सिद्धांत,विचारधारा । राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व समूह,उसकी छबी,कार्य क्षमता,कार्यशैली,उनका विजन। दल ओर उम्मीदवारों का इतिहास।वैश्विक ओर देशीय संदर्भ में आज के भारत की  आवश्यकता ओर प्राथमिकताएँ।उन्हें कौन सा दल या दलों का समूह पूरा कर सकता है ? आज जब गठबंधन सरकारों का दौर है तो यह भी आकलन ज़रूरी है की कौन से गठबंधन स्थाई ओर प्रभावी सरकार दे सकते हैं।ओर राजनीतिक दलों के वादे ओर घोषणाएँ भी-वे  सुविचरित हैं या चुनाव जीतने के हथकंडे ।

जाग ग्राहक जाग की तरह जाग मतदाता जाग,लोकतंत्र की सफलता के लिए यह मूलमंत्र है।तो आइए संख्यात्मक के साथ साथ गुणात्मक मतदान के लिए आम मतदाता शक्ति के रूप में हर निर्वाचन क्षेत्र के हर गली ,मोहल्ले कालोनी में हम अपनी भूमिका तय कर स्वयं पहल कर सक्रिय हो जायें।जब तक अच्छे प्रत्याशी ओर अच्छे दल को जनता नहीं जितायेगी  दिग्भ्रमित राजनीतिक दल मजबूरीवश ही क्यों ना हो लोकतंत्र की मूल भावना से खिलवाड़ करते रहेंगे।वोटों के सौदे होंगे,वोटों के लिए षड्यंत्र होंगे ओर लोकतंत्र खोखला होता जाएगा।

Thursday 28 March 2019

राजनीतिज्ञ कब खेल भावना को अपनाएंगे ?



कुछ अच्छे तरीकों से भी वोट बढ़ सकते हैं।

राजनीति में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा क्यों नही हो सकती है ? देश स्पेस पॉवर बना है ,तो देश की खुशी में अन्य राजनीतिक दल शामिल क्यों नही होते हैं ? क्यों श्रेय की लड़ाई शुरू हो जाती है।

उरी के बाद सर्जिकल स्ट्राईक हुई तो सबूत,पुलवामा के बाद एअर स्ट्राईक हुई तो सबूत मांगे गए। अंतरिक्ष मे सेटेलाइट को मार गिराने की क्षमता  अर्जित कर ली तो कांग्रेस ने कहा कि
ए-सेट मिसाइल की उपलब्धि का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी को जाता है ,क्योंकिउनके
समय DRDO बना था।

इस बात से कौन इनकार कर रहा है कि जवाहरलाल नेहरू औरइंदिरा जी के समय DRDA बना था।बहस तो इस बात पर है किक्षमता होते हुए भी सैटेलाइट को निशाना बनाने वाला किल व्हीकल बनाने की अनुमति मनमोहन सरकार ने क्यों नही दी थी।

सवाल तो यह भी है कि वैज्ञानिक क्षमता होते हुए भी परमाणु परीक्षण पोखरण में अटल सरकार में क्यों होता है उसकी पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों में क्यों नही हुआ ? महाशक्तियों से डर क्यों लगता है कांग्रेसी सरकारों को ? और क्यों भाजपा सरकारें यह सब कर जाती हैं ?

चर्चा चली है तो याद करना अन्यथा नही होगा कि राजा हरिसिंह
के कहने के बाद भी कश्मीर का अन्य राज्यों की तरह भारत में पूर्ण विलय तुरन्त क्यों नही किया गया,क्यों धारा 370 आई,हमारे किसी भूभाग के लिए पाक अधिकृत कश्मीर शब्द आज भी प्रचलित है।

क्यों भाजपा के आगे विशेषण के रूप में राष्ट्रवादी शब्द प्रयोग किया जाता है,क्यों भाजपा को हिंदुत्ववादी कहा जाता है,क्यों कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए जाना जाता है ?

बहुत गहन विवेचना आम भारतीय नही कर पाता है,पर जब राष्ट्र के लिए गौरव शाली क्षण आते हैं तभी सबूत मांगे जाते हैं या श्रेय के लिए बचकाना लड़ाई लड़ी जाती है ,तो ऐसा करने वालों के चेहरों से नकाब हटने लगता है।

स्कूलों में जब प्रतियोगिताओं के विजेताओं को पुरुस्कार वितरण किये जाते थे तो वक्ता यह जरूर कहते थे कि जिन्हें सफलता नही मिली है वे निराश ना हों ,ओर मेहनत करें और क्षमता बढ़ाइए, भविष्य में आपको भी सफलता मिलेगी।मूल भाव यह होता थी कि उनमें निराशा का या ईर्ष्या का भाव नही आये।पूरी पीढ़ी में खेल भावना का विकास हो।

कांग्रेस और विपक्षी दलों में ,राहुल और केजरीवाल में,ममता ओर मायावती में कब यह खेल भावना आएगी ? कब एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के दृश्य भारत के राजनीतिक परिदृश्य में भी दृष्टिगोचर होंगें ? यदि हो सकेगा तो दुनिया की सर्वोच्च महाशक्ति बनने के लिए 25-30 वर्षों का इंतजार नही करना पड़ेगा।

अंत मे यह जरूर कहना चाहूंगा कि यदि कांग्रेस सर्जिकल स्ट्राईक 1 ओर 2 समर्थन कर देती ओर स्पेस पॉवर बनने पर सरकार को बधाई दे देती तो उसका सम्मान भी बढ़ता ओर कुछ वोट भी।

आखिर में लड़ाई तो वोट की ही है।

Monday 25 March 2019

लोकतंत्र के पर्व- मेरी दृष्टि, मेरी अनुभूति (3)

भारतीय लोकतंत्र की विचित्र विडम्बना :राजनीति ओर नेता हिक़ारत की नजर से देखें जाते हैं


भारतीय लोकतंत्र में कई गंभीर विडम्बनाएं हैं।लोकतंत्र में राजनीतक दल एवं आम जनता दो मत्वपूर्ण अंग हैं।राजनेता ओर कार्यकर्ता राजनीतिक दलों के अविभाज्य अंग है।मज़ेदार बात यह है कि लोकतंत्र में गहन विश्वास रखने वाले आम  भारतीय मतदाता के मन मे राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों के प्रति श्रद्धा और विश्वास का अभाव बहु प्रचारित है।नेता शब्द मजाक ओर जन हिकारत का प्रतीक है। यदि पति और पत्नी ,पिता और पुत्र या दो पड़ोसियों के बीच परस्पर विश्वास और श्रद्धा का अभाव हो ,दोनों एक दूसरे को हिकारत की नजर से देखते हों ,तो कल्पना कीजिए कि परिवार या पड़ोस कैसे चलेगा ? 

ओर एक विचित्रता भी दिखती है।मानसिक स्तर पर राजनेताओं,कार्यकर्ताओं के  प्रति हिकारत दिखती है किंतु
जब आम जनता नेताओं जिसमें जनप्रतिनिधि भी रहते हैं से मिलती है तो उनका बड़ा सम्मान करती है।उनके साथ ,उनके निकट दिखना चाहती है।उनके साथ फोटो खिंचाना चाहती है।उनके साथ सेल्फी लेकर  उसे बड़े उत्साह और सम्मान के साथ सोशल मीडिया पर प्रसारित करती है।

तो प्रश्न उठता है कि यह धूर विरोधाभासी परिदृश्य क्यों है ? इतने विरोधाभास के बावजूद लोकतंत्र सात दशकों से चल रहा है और मजे से चल रहा है।विकल्प के रूप में वामपंथी आंदोलन के एक हिस्से नक्सलवाद जो लोकतंत्र का घोर विरोधी है या दूसरा  हिस्सा लोकतांत्रिक वामपंथ  (जिसके दर्शन में क्रांति ओर प्रतिक्रांति है,ओर तब तक ही वह मजबूरी में लोकतंत्र को अपना रहा है) के अस्तित्व में होने के बावजूद जनता इसे भाव नही देती है। इतना ही क्यों ,हमे याद है कि भारतीय राजनीति की ताकतवर नेता इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस जो कांग्रेस (आई) के नाम से जानी गई को आपातकाल लगाने की ऐसी सजा मिली कि उस समय यानी 1977 में स्वयं इंदिरा जी को रायबरेली से हार का मुंह देखना पड़ा बल्कि पहली बार अपराजेय सी प्रतीत होने वाली कांग्रेस को लोकसभा में विपक्ष में बैठना पड़ा।ओर उसके बाद से जैसे मोत ने घर देख लिया हो कांग्रेस के लिए हार जीत अन्य राजनीतिक दलों के तरह एक सामान्य बात हो गई है। ओर इतनी सामान्य की नरेंद मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात भी कहने लगे (यद्यपि उसके आशय को लेकर उन्होंने बाद में स्पष्टीकरण भी दिया) ओर देश के एक बड़े वर्ग को "यह हो सकता है" ,"यह अविश्वसनीय नही है" ,ऐसा लगने भी लगा ।

कहने आशय यह कि भारतीय जनता लोकतंत्र को चाहती भी है और उसके सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान "वोट से सत्ता बदलने"  का बहुत कुशलता से ,बहुत मासूमियत से उपयोग भी कर लेती है।जनता ने जहाँ आपातकाल की सजा इंदिरा जी को दी वहीं पहली जनता पार्टी सरकार को जिसे उसने स्वयं चुनाव लड़ाकर (आपात काल के बाद का चुनाव जनता ने ही लड़ा था,यह माना जाता रहा है।) सत्तासीन किया और उसे जब आपस मे  लड़ते देखा तो उसे भी अपनी असली जगह दिखा दी।

ओर ऐसा भी नही है कि लोकतांत्रिक सरकारों की कोई उपलब्धियां नही है।ऐसा भी नही है कि सरकारों के कारण लोगो के जीवन मे कोई परिवर्तन नही आया है ।इसी जनता ने कई सरकारों को  दो,तीन या चार चार कार्यकाल भी दिया है।फिर भी व्यापक तौर पर राजनेताओं के प्रति जनता के मन में जो आदर का, विश्वास का भाव चाहिए वह नही है।नेता शब्द आज भी हेय बना हुआ है।

 हो सकता है यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण ना लगे । क्योंकि व्यवहारिक जीवन में कोई विपरीत प्रभाव नजर नही आता है।पर मुझे लगता है कि यह वैसा ही मामला है जैसे कोई व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ नजर आता है,पर चिकित्सकों की दृष्टी में वह पूर्ण स्वस्थ नही कहलाता है।क्योंकि रोग के बीज तो कहीं पड़े ही है,जो कभी भी गंभीर स्थिति पैदा कर सकते हैं।
मुझे लगता है कि आज मार्च 19 में जब (चुनाव)युद्ध शुरू हो चुका है तब यह विचार का विषय नही हो सकता है किंतु शांति काल में अवश्य इस विषय पर बहस की आवश्यकता है।

स्वस्थ और परिणामकारी लोकतंत्र के लिए इस विडम्बना के कारणों को खोजना भी चाहिए और उसे दूर करने के उपाय भी करना चाहिए । हो सकता है यह किसी बड़े रोग का निष्क्रिय कारण हों,पर अस्वाभाविक लक्षण  तो हैं ही। अस्वभाविकता कभी भी पूर्ण सन्तुष्टि नही दे सकती है।
















Saturday 23 March 2019

लोकतंत्र के पर्व -मेरी दृष्टि ,मेरी अनुभूति (1)

देश अब अगले लोकसभा चुनाव के लिए तैयार है ।चुनाव आयोग ने चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर दी है ।राजनीतिक दलों के गठबंधन अब लगभग अंतिम रूप ले चुके हैं ।दलबदल का दौर शुरू हो चुका है ।कई निष्ठावान ओर समर्पित बड़े नाम दल बदल कर अपनी निष्ठा को फ़्रीज़ कर चुके हैं,जो भविष्य में घर वापसी के समय काम आएगी।तय चुनावी मुद्दे जब मीडिया की सुर्ख़ियाँ बटोरने में नाकामयाब होने लगते हैं तो मजबूरी में सामने वाले को “मिर्ची लगने वाले” बयान जवाँ पर बरबस ही आ जातें हैं ।ओर ऐसे मुद्दे जब “लोकतंत्र के चोथे सम्मानित स्तंभ” भारतीय मीडिया की “बड़ी ख़बर” ओर सुर्ख़ियाँ बनने लगतीं हैं तो राजनेताओं को अपनी शैली सही लगतीं है ओर अगले डायलोग सृजित करने के लिए उनकी क्रिएटिव शक्तियाँ सक्रिय हो जातीं हैं।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आम चुनाव एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी बन जाती है।कई चालू काम रुक जातें हैं ओर कई “नए काम “ चालू हो जाते हैं ।छोटे छोटे लोगों को छोटे रोज़गार ओर बड़े बड़े लोगों को बड़ा रोज़गार।बड़े स्थापित सम्मानित खिलाड़ियों के अपनी अपनी बारगेनींग ताक़त के अनुसार तय दर से कई गुना दरों पर अग्रीमेंट हो जाते हैं।काले धन की जिजीविषा को सकारात्मक ताक़त मिलना भी इस पुराने होते लोकतंत्र की गुप्त उपलब्धी माना जाना चाहिए।  कोई कितना भी चाह ले काले का सफ़ेद ओर सफ़ेद का काला होना ही है।


भारत में होली पर रंग-पिचकारी ,रक्षाबंधन पर राखियाँ, दशहरे पर रावण के पुतले,दीपावली पर पटाखे जैसे सीजनल व्यवसाय की श्रेणी में चुनावी सर्वे,एक्जीट पोल भी जुड़ गए हैं।वैसे हर साल कहीं ना कहीं होने वाले चुनावों के सुआवसरों के कारण ये सीजनल व्यवसाय भी स्थाई श्रेणियों के व्यवसाय के समकक्ष माने जाने चाहिए।

पार्टियों की ,नेताओं की ब्रांडिंग करने तथा रणनीति बनाने का    कार्य  भी विज्ञान अनुसंधान शैली के उच्च सम्मान प्राप्त जैसी गतिविधि में प्रतिष्ठित होते जा रहा हैं।इसका प्रभाव ओर दख़ल इतना असरदार होता है की पार्टी के सुपर बॉस के निकटस्थ लोगों को कोई सोतन आ गई है ऐसा लगने लगता है।ओर ये कथित कोरपोरेट सोतने अपने साथ दहेज में प्राप्त दास-दासियों की तरह राजनीतिक दलों में आउट सोर्सिंग व्यवस्था को भी स्थापित करवा देती हैं।रासायनिक खेती से जैसे कुछ समय फ़सल की मात्रा तो बड़ जाती हे पर पर गुणवत्ता ,स्वाद ,ख़ुशबू ओर ज़मीन की उर्वरा शक्ती पर गहरे दुष्परिणामों होते हैं ,इसी तरह के प्रभाव राजनीतिक दलों में भी प्रतिलक्षित होते हैं।


ओर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है लोकतंत्र के इस पर्व का सबसे सुंदर दृश्य -जन विमर्श।उच्च शिक्षा संस्थानों के परिसरों से लेकर मनरेगा के कार्यस्थलो तक ,काफ़ी हाउस से लेकर नुक्कड़ों की चाय -पान की गूमटियों तक ,उच्च शिक्षित से लेकर अल्प शिक्षित /अशिक्षित सभी पूरे अधिकार से बड़ी बड़ी पार्टियों ओर बड़े बड़े नेताओं सभी की समीक्षा करते नजर आते  हैं।


और इन सबके साथ चलते हुए एक दिन मतदान का दिन आ ही जाता हे ।मतदाता हमेशा की तरह “मौन” होकर मतदान कर के आ जाता है।ओर मत पेटियों से चौंकाने वाले परिणाम भी निकलते हैं।ओर अंत में मीडिया,चुनाव विशेषज्ञ घोषणा करते हैं की भारतीय मतदाता परिपक्व हो चुका ओर उसने अपना जनादेश सुना दिया हे।नेता इस जनादेश को स्वीकार करते हैं।


चुनाव आयोग निर्णय से राष्ट्रपति/राज्यपाल को अवगत कराते हैं।आचार संहिता समाप्त होती है।शपथ ग्रहण  के साथ “सरकार” बनती है।लोकतंत्र का एक दिन का राजा फिर से आम आदमी बन जाता है ।राजधानियाँ अपने शाब्दिक अर्थ के साथ फिर से जगमगाने लगती हैं।पृथ्वी रूपी लोकतंत्र अपनी धुरी पर एक चक्र पूरा करती है ओर छोड़ जाती हे अनेक बातें विश्लेषणके लिए की आख़िर क्या खोया -क्या पाया ?

हम भारत वासी पुनः लोकतंत्र के इस नए चक्र के पूर्ण होने के केवलसाक्षी नहीं सहभागी ओर सह ज़िम्मेदार होने जा रहे
हैं।मंगल कामनाएँ ।

आख़िर कब हम एक राष्ट्र की तरह व्यवहार करना सिखेंगे ?

दुश्मन देश पर सैनिक कार्यवाही का श्रेय सत्तारूढ़ दल को लेना चाहिए या नही ? यह एक गम्भीर प्रश्न है ।कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों के प्रकाश में इस पर विचार मंथन करना चाहिए

१) सेना स्वयं  सैनिक  कार्यवाही या युद्ध का निर्णय नहीं लेती है ।सेना अपनी तैयारी ,क्षमता ,रणनीति ओर अपनी आवश्यकता के बारे में सरकार को बताती है ओर सरकार इन विषयों पर निर्णय लेती है।स्वाभाविक है जो इकाई निर्णय लेगी ज़िम्मेदारी भी उसी की होगी।

२)सैनिक कार्यवाही के पूर्व सेना के इंटेलीजेंस के अलावा अन्य एजेंसियों तथा मित्र देशों की इंटेलीजेंस सूचनाओं पर भी विचार करना होता है।यह कार्य भी सरकार के माध्यम से ही होता है ।

३) सैनिक कार्यवाही के पूर्व मित्र देशों को विश्वास में लेना होता है तथा शत्रु देश के मित्र देश क्या भूमिका निभायेंगे इसका आकलन भी करना होता है ।आवश्यक कूटनीतिक चर्चा भी सभी पक्षों से करना होती है ।विश्व राजनीति की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण कार्य भी सरकार करती है।

४)सैनिक कार्यवाही के समय देश की आंतरिक स्थिति क्या हो सकती है इसका आकलन तथा तदनुसार पूर्व तैयारी भी करना मुख्यतः गृह विभाग को करना होती है ।इतना ही नहीं परिवहन ,चिकित्सा,नगरीय प्रशासन ,नागरिक आपूर्ति जैसे अनेक विभागों को पूर्व सतर्क रहना होता है ।

५)युद्ध की स्थिति में तथा युद्ध के बाद देश की आर्थिक स्थिति क्या होगी इसका आकलन तथा ज़रूरी अग्रिम  व्यवस्थाएँ भी सरकार की ज़िम्मेदारी होती है

६)युद्ध के पूर्व या युद्ध के समय प्रचार युद्ध का महत्वपूर्ण असर होता है ।शत्रु देश अपने एजेंटो के माध्यम से कई प्रकार की अफ़वाहें फेलाने ,सेना ओर जनता का मनोबल गिरने हेतु प्रोपेगेंडा केम्पेन चलाते हैं ।ग़लत अवधारणाएँ प्रस्तुत जी जाती हैं,यथा युद्ध से कितना आर्थिक नुक़सान होगा ,युद्ध के बाद दुष्परिणामों को आने वाली पीढ़ियों को भोगना होगा ,युद्ध मानवता के ख़िलाफ़ है आदि ।शत्रु देश अपने नुक़सान को नकारता है ओर झूठी सफलता को प्रचारित करता है ।इन सबसे निपटने के लिए सरकार के सूचना ओर जनसम्पर्क विभाग को बहुत काम करना होता है ताकि देश की विश्वसनीयता बनी रहे तथा एक दुनिया में एक परिपक्व देश की छवि उभरे ।

इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि सीमा पर या सीमा पार युद्ध तो सेना लड़ती है पर पूरी सरकार ओर देश उसके साथ खड़ा रहता है ।इसलिए कहते भी हैं की युद्ध सेना नहीं पूरा देश लड़ता है । यद्दपी युद्ध हमेशा अंतिम विकल्प होता है,पर युद्ध शुरू हो गया तो पूरा देश उसके साथ जुड़ जाता है । युद्ध जीतते हैं तो पूरा देश ख़ुशी सेझूमताहैजैसे1965,1971’कारगिल या अभी अभी हुई सर्जिकल स्ट्राइक ओर हारते हैं तो पूरा देश अवसाद ग्रस्त होता है जैसे 1962 का चीन युद्ध ।

आजकल सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर कई प्रश्न चिन्ह खड़े किए जा रहे हैं।यथा सबूत माँगे जा रहे हैं,कुछ आतंकियों की ग़लती की सज़ा पूरे देश (पाकिस्तान ) को क्यों दी जा रही है ? यहाँ तक कह दिया गया कि दोनो देशों की सरकारों में मैच फ़िक्स था।ऐसे सवाल खड़े करने का एक ही उद्देश्य है कि सरकार सर्जिकल स्ट्राइक का चुनावी लाभ ना ले सके।यह भी कहा जाता रहा है की लड़ाई तो सेना ने लड़ी,सरकार उसका श्रेय क्यों ले रही है?

इसीलिए यह प्रश्न उत्पन्न होता है की सैन्य कार्यवाही का श्रेय सरकार को मिलना चाहिए या नहीं ?यह प्रश्न केवल आज के लिए नहीं है ? केवल आसन्न चुनावों के संदर्भ में नहीं है।यह प्रश्न सदा सर्वदा के लिए है ।इन प्रश्नो पर देश में एक सामान्य समझ विकसित होना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि भविष्य में सबूत माँगने,कुछ लोगों की ग़लती की सज़ा पूरे देश को क्यों तथा मैच फ़िक्सिंग जैसे हास्यास्पद ओर शर्मनाक सवालों का सामना देश को ना करना पड़े ।


आख़िर कब हम एक राष्ट्र की तरह व्यवहार करना सिखेंगे ?

Wednesday 20 March 2019

मनोहर पर्रिकर : मेरे श्रद्धा सुमन

आज ब्लागर की दुनिया में पहला कदम।
(स्व.मनोहर पर्रिकर को समर्पित )
अभी अभी समाचार मिला कि लंबी बीमारी के बाद गोवा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर पर्रिकर जी का निधन हो गया।उनकी ईमानदारी और कर्मठता उन्हें दिल्ली रक्षा मंत्रालय तक ले गई।
जब रक्षा मंत्रालय में बदनामी के भय से रक्षा सौदे होना बंद पड़े थे उस समय  ईमानदारी के ब्रांड एम्बेसडर के रूप में उन्हें गोवा के मुख्यमंत्री की जगह उन्हें रक्षा मंत्री की जिम्मेदारी संभालने के लिए दिल्ली बुला लिया गया।और जब गोवा में राजनीतिक अस्थिरता के संकेत मिलने लगे तो सबके सम्मान के पात्र,सबको जोड़ने की क्षमता के कारण उन्हें पुनः गोवा आना पड़ा।
राजनीति में इधर से उधर की उठापटक उनदिनों में आम बात थी जब केंद में कांग्रेस बहुत मजबूत थी ।मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह जी की यादें आज भी जेहन में बसी हुईं हैं।
मनोहर जी का गोवा से दिल्ली और दिल्ली से गोवा का सफर
कोई राजनीतिक उठा पटक का उदाहरण नही है बल्कि विशुद्ध योग्यता और क्षमता के आधार पर जरूरतों को पूरा करने का दुर्लभ उदाहरण है।
एक ऐसा राजनेता जिसके खिलाफ आरोप इसलिए नही लगाए गए क्योंकि उनके खिलाफ मसाला नही मिलता था के स्थान पर यह कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि उनके खिलाफ आरोप लगाने की इच्छा ही नही होती थी।    
श्री राहुल गांधी कांग्रेस जैसी महत्वपूर्ण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं,अतः इस नाते उनका सम्मान करता हूँ परन्तु मुझे यह बताने में कोई संकोच नही की उनकी बातों ने/ भाषणों ने मुझे कभी भी प्रभावित नही किया ।किंतु मनोहर पर्रिकर को श्रद्धांजलि देते हुवे उन्होंने " गोवा के सबसे लाडला बेटा " कहा .मुझे लगता है यह बहुत सच्ची ओर सरल श्रधांजलि अभिव्यक्त की (ओर  यह कह कर राहुल गांधी ने शायद  उनके संदर्भ में हाल ही में अपने द्वारा की गई गलती का प्रायश्चित भी कर लिया है।)
मनोहर पर्रिकर जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहे।फिर भी राजनीतिक इतिहास में उन्हें सादगी और कर्मठता के लिए ना केवल याद किया जाता रहेगा राजनीतिक दलों की सीमा के बाहर अनेकों राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए वे प्रेरणा स्रोत रहेंगे।
विनम्र श्रद्धांजलि।