Monday 25 March 2019

लोकतंत्र के पर्व- मेरी दृष्टि, मेरी अनुभूति (3)

भारतीय लोकतंत्र की विचित्र विडम्बना :राजनीति ओर नेता हिक़ारत की नजर से देखें जाते हैं


भारतीय लोकतंत्र में कई गंभीर विडम्बनाएं हैं।लोकतंत्र में राजनीतक दल एवं आम जनता दो मत्वपूर्ण अंग हैं।राजनेता ओर कार्यकर्ता राजनीतिक दलों के अविभाज्य अंग है।मज़ेदार बात यह है कि लोकतंत्र में गहन विश्वास रखने वाले आम  भारतीय मतदाता के मन मे राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों के प्रति श्रद्धा और विश्वास का अभाव बहु प्रचारित है।नेता शब्द मजाक ओर जन हिकारत का प्रतीक है। यदि पति और पत्नी ,पिता और पुत्र या दो पड़ोसियों के बीच परस्पर विश्वास और श्रद्धा का अभाव हो ,दोनों एक दूसरे को हिकारत की नजर से देखते हों ,तो कल्पना कीजिए कि परिवार या पड़ोस कैसे चलेगा ? 

ओर एक विचित्रता भी दिखती है।मानसिक स्तर पर राजनेताओं,कार्यकर्ताओं के  प्रति हिकारत दिखती है किंतु
जब आम जनता नेताओं जिसमें जनप्रतिनिधि भी रहते हैं से मिलती है तो उनका बड़ा सम्मान करती है।उनके साथ ,उनके निकट दिखना चाहती है।उनके साथ फोटो खिंचाना चाहती है।उनके साथ सेल्फी लेकर  उसे बड़े उत्साह और सम्मान के साथ सोशल मीडिया पर प्रसारित करती है।

तो प्रश्न उठता है कि यह धूर विरोधाभासी परिदृश्य क्यों है ? इतने विरोधाभास के बावजूद लोकतंत्र सात दशकों से चल रहा है और मजे से चल रहा है।विकल्प के रूप में वामपंथी आंदोलन के एक हिस्से नक्सलवाद जो लोकतंत्र का घोर विरोधी है या दूसरा  हिस्सा लोकतांत्रिक वामपंथ  (जिसके दर्शन में क्रांति ओर प्रतिक्रांति है,ओर तब तक ही वह मजबूरी में लोकतंत्र को अपना रहा है) के अस्तित्व में होने के बावजूद जनता इसे भाव नही देती है। इतना ही क्यों ,हमे याद है कि भारतीय राजनीति की ताकतवर नेता इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस जो कांग्रेस (आई) के नाम से जानी गई को आपातकाल लगाने की ऐसी सजा मिली कि उस समय यानी 1977 में स्वयं इंदिरा जी को रायबरेली से हार का मुंह देखना पड़ा बल्कि पहली बार अपराजेय सी प्रतीत होने वाली कांग्रेस को लोकसभा में विपक्ष में बैठना पड़ा।ओर उसके बाद से जैसे मोत ने घर देख लिया हो कांग्रेस के लिए हार जीत अन्य राजनीतिक दलों के तरह एक सामान्य बात हो गई है। ओर इतनी सामान्य की नरेंद मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात भी कहने लगे (यद्यपि उसके आशय को लेकर उन्होंने बाद में स्पष्टीकरण भी दिया) ओर देश के एक बड़े वर्ग को "यह हो सकता है" ,"यह अविश्वसनीय नही है" ,ऐसा लगने भी लगा ।

कहने आशय यह कि भारतीय जनता लोकतंत्र को चाहती भी है और उसके सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान "वोट से सत्ता बदलने"  का बहुत कुशलता से ,बहुत मासूमियत से उपयोग भी कर लेती है।जनता ने जहाँ आपातकाल की सजा इंदिरा जी को दी वहीं पहली जनता पार्टी सरकार को जिसे उसने स्वयं चुनाव लड़ाकर (आपात काल के बाद का चुनाव जनता ने ही लड़ा था,यह माना जाता रहा है।) सत्तासीन किया और उसे जब आपस मे  लड़ते देखा तो उसे भी अपनी असली जगह दिखा दी।

ओर ऐसा भी नही है कि लोकतांत्रिक सरकारों की कोई उपलब्धियां नही है।ऐसा भी नही है कि सरकारों के कारण लोगो के जीवन मे कोई परिवर्तन नही आया है ।इसी जनता ने कई सरकारों को  दो,तीन या चार चार कार्यकाल भी दिया है।फिर भी व्यापक तौर पर राजनेताओं के प्रति जनता के मन में जो आदर का, विश्वास का भाव चाहिए वह नही है।नेता शब्द आज भी हेय बना हुआ है।

 हो सकता है यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण ना लगे । क्योंकि व्यवहारिक जीवन में कोई विपरीत प्रभाव नजर नही आता है।पर मुझे लगता है कि यह वैसा ही मामला है जैसे कोई व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ नजर आता है,पर चिकित्सकों की दृष्टी में वह पूर्ण स्वस्थ नही कहलाता है।क्योंकि रोग के बीज तो कहीं पड़े ही है,जो कभी भी गंभीर स्थिति पैदा कर सकते हैं।
मुझे लगता है कि आज मार्च 19 में जब (चुनाव)युद्ध शुरू हो चुका है तब यह विचार का विषय नही हो सकता है किंतु शांति काल में अवश्य इस विषय पर बहस की आवश्यकता है।

स्वस्थ और परिणामकारी लोकतंत्र के लिए इस विडम्बना के कारणों को खोजना भी चाहिए और उसे दूर करने के उपाय भी करना चाहिए । हो सकता है यह किसी बड़े रोग का निष्क्रिय कारण हों,पर अस्वाभाविक लक्षण  तो हैं ही। अस्वभाविकता कभी भी पूर्ण सन्तुष्टि नही दे सकती है।
















2 comments:


  1. स्वस्थ और परिणामकारी लोकतंत्र के लिए इस विडम्बना के कारणों को खोजना भी चाहिए और उसे दूर करने के उपाय भी करना चाहिए । हो सकता है यह किसी बड़े रोग का निष्क्रिय कारण हों,पर अस्वाभाविक लक्षण तो हैं ही। अस्वभाविकता कभी भी पूर्ण सन्तुष्टि नही दे सकती है।

    मंथन के उपरांत निसृत नवनीत स्वास्थ्यवर्धक होता है, लोकतंत्र के लिए सार्थक बहस अत्यावश्यक होती है तथा निरर्थक बहस हानिकारक। बाकी जो है सो तो हैइए है।

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  2. One who leads the politics of nation is known as political leader , anyone who is just a mere member of any political party can be called as politician but not a leader. And a leader is always respected and appraised and politician is mocked around.

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