Tuesday 16 April 2019

लोकतंत्र के पर्व-मेरी दृष्टि ,मेरी अनुभूति (6)

नेताओ को बोलने दो ताकि जनता उन्हें समझ सके
चुनाव आयोग ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ओर ,बसपा प्रमुख मायावती पर  क्रमशः 72 ओर 48 घंटे तक चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया है। योगी आदित्यनाथ या उनकी पार्टी भाजपा का तो कोई बयान नही आया है पर मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस कर के चुनाव आयोग के इस निर्णय का विरोध किया है

उन्होंने मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए एक महत्वपूर्ण विषय उठाया है कि उन्हें उनका पक्ष रखने का मौका नही दिया गया है,ओर यह चुनाव आयोग का एक तरफा फैसला है।निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो मायावती के इस तर्क पर सहमत हुआ जा सकता है कि "पक्षकार को सुने बिना एक तरफा फैसला देना उचित नही है." हो सकता तहै चुनाव आयोग ने यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के भय से लिया हो।भयभीत होने पर हड़बड़ाहट में गलती होने की संभावनाए तो रहती ही हैं।

चुनाव आयोग का मूल कार्य समय पर भयमुक्त वातावरण में निष्पक्ष चुनाव करना है। भयमुक्त वातावरण के लिए शासन ,सत्तारूढ़ दल,संगठित आपराधिक ताकते,आतंकवादी संगठन,बाहुवली एवं धनकुबेरों  को नियंत्रित करने हेतु आवश्यक निर्देश जारी करने ,व्यस्थायें करने एवं जरूरी कदम उठाने उसके स्वाभाविक कार्य हैं। इसी प्रकार स्वस्थ वातावरण में चुनाव प्रक्रिया पूर्ण हो इसलिए सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए भी आचार संहिता के अंतर्गत अनेक निर्देश जारी किए जाते हैं।
निष्पक्ष चुनाव कराने के दबाव में चुनाव आयोग कई ऐसे नियम बनाता है जो अव्यवहारिक तो हैं ही,अतार्किक भी हैं।इसमें से एक हैं चुनाव प्रचार के लिए धन व्यय करने की सीमा।यह राशि उम्मीदवार के संदर्भ में  इतनी कम होती है कि लगभग सभी उम्मीदवारों को झूठे प्रतिवेदन प्रस्तुत करना पड़ता है।


लाचारी तो तब होती है जब कोई स्टार प्रचारक किसी चुनाव क्षेत्र में सभा या रोड़ शो करता है तो उस क्षेत्र का उम्मीदवार मंच पर नही होता है,क्योंकी मंच पर चढ़ते ही उस सभा का आधा खर्च जो निश्चित ही एक बड़ी राशि होती है,उस उम्मीदवार के खर्च में जुड़ जाता है।जबकि स्टार प्रचारक की सभा में स्वाभाविक रूप से ज्यादा मतदाता आते हैं तथा उनके लिए एक अच्छा अवसर होता है कि वे अपने उम्मीदवार को देख व सुन सकते हैं।पर इस नियम के कारण स्टार प्रचारक की सभा बिन दूल्हे की बारात जैसा दृश्य उतपन्न करता है। चुनाव आयोग के ऐसे बहुत सारे नियम हैं किंतु उनकी चर्चा फिर कभी।


फिलहाल तो चुनाव आयोग की चर्चा मायावती,योगी आदित्यनाथ ओर बाद में मेनका गांधी तथा आजम खान पर 48 से 72 घंटे तक चुनाव प्रचार पर रोक लगाने के संदर्भ में है। आरोप है कि इन नेताओं ने अपने भाषण में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगे।


देश मे जाती पंथ ओर धर्म हैं और उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं।जाती,पंथ ओर धर्म के आधार पर राजनीतिक पार्टियों के पदाधिकारी तय किये जाते है,पार्टियां अपने उम्मीदवार तय करती हैं।मंत्रिमंडल गठन के समय यह भी एक महत्वपूर्ण मानक होता है।इतना ही क्यों शासकीय नोकरियों में भी आरक्षण के माध्यम से इन पर विचार होता है।फिर चुनावी भाषणों में ही इस पर रोक क्यों ? वह भी मंचीय भाषणों में मात्र।चुनाव के समय विभिन्न जाती समूह की सक्रियता यही तो करती है।घर घर सम्पर्क ओर जातीय ,पंथीय बैठकों में यही तो होता है ,यह कौन कहता है कि उसे पता नही है ? फतवा जारी होने कोन रोक पाया है ? कुछ चीजें समाज के डर से ही रुकेंगी,सरकार ,जुडिशरी या आयोग की अपनी सीमा है।एक तरीके पर रोक लगाएंगे तो कई नए तरीके ईजाद कर लिए जाएंगे।


अपशब्द कह रहें हैं तो कहने दीजिये ना,जनता उस पर फैसला करेगी ना ? मोत के सौदागर,चाय वाला पर जनता ने फैसला लिया है ना।दिल और दिमाग की बात जुबान पर आने दीजिये ना।तभी तो जनता अपने नेता को ठीक से पहचान पाएगी।शब्दों पर लगाम लगाकर आप किसी की नीति और नियत ठीक नही कर सकते।जनता निर्णय करेगी और ठोकर भी खाएगी ,पर इसी से जनता परिपक्व निर्णय लेना सीखेगी। निर्वाचन आयोग अपने मूल काम र ध्यान केंद्रित करे यथा मतदान केंद्र तक सभी मतदाता पहुंच सकें,बहुत आराम से निर्भीक होकर मतदाता मतदान कर सके ।आज भी कई मतदाता लंबी लाइन देख मतदान केंद्र से वापस आ जाते है,आज जब लाइनों में लगने की आदत धीरे धीरे समाप्त हो गई है (पहले राशन की दुकानों, गैस सिलेंडर, रेलवे रिज़र्वेशन, बिजली,टेलीफोन बिल भुगतान के लिए मजबूरी में ही क्यों ना हो लाइन में लगने की आदत पड़ जाती थी) इस पर आयोग को ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। इसी क्रम में मतपत्रों की गिनती(आजकल EVM से) शून्य भूल के साथ हो यह सुनिश्चित करना चाहिए।यह मूलभूत कार्य वह ठीक से करता है तो उसकी वाहवाही है,अन्यथा तो वह भी विवादों में पड़ता रहेगा।(ओर यदि कार्यवाही करना ही हो तो निर्वाचन आयोग की जानकारी में नियमों के तहत प्रशासन ही करे.)

Wednesday 10 April 2019

लोकतंत्र के पर्व - मेरी दृष्टि, मेरी अनुभूति (5)

जनता की चाह काले धन के प्रभाव से मुक्त हों आम चुनाव

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के निकट सहयोगी के यहाँ इनकम टेक्स के छापे में करोड़ों रुपए मिले।आजकल इतना नगद रखना ग़ैर क़ानूनी है।ओर कोई समय होता तो यह माना जाता की यह सम्बंधित व्यक्तियों द्वारा अर्जित काला धन है।किंतु समय चुनाव का है ओर जिनके यहाँ छापे पड़े हैं ,उनकी कांग्रेस नेताओं से निकट्ता है।स्वाभाविक रूप से कांग्रेस परेशान है।निश्चित रूप से कांग्रेस शर्मसार होती ,यदि दुनिया को यह पता ना होता की भारत के आम चुनाव धन के प्रभाव से मुक्त हैं।

कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि इस के जवाब में वह कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दे पाएगी।कांग्रेस के बड़े नेता अहमद पटेल यह ज़रूर कह रहे हैं की मोदी जी आज सरकार में हैं (कांग्रेस के लिए यह है तो बड़ी पीड़ा की बात) ओर वे सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं।भारत की चतुर जनता वो जो नहीं कह रहें हैं उसे भी सुन रही है की “हम सत्ता में होते तो ऐसा नहीं होता ओर यह भी की हम कभी सत्ता में आएँगे तो भाजपा वालों तुम्हारी खेर नहीं होगी”।

मोदी शाह की अपनी विशिष्ट ओर विचित्र शैली है।राज करने की भी ओर लड़ाई करने की भी।अनोखपन ,आश्चर्य ओर चोकाना यह उनके परिणाम के सह उत्पाद होते हैं।बाद में क्या होगा शायद यह उनके विचार का हिस्सा नहीं होता है।जो करने जा रहे हैं वह ठीक है या नही शायद इसे वे दस बार सोचते होंगे।नोटबंदी,जीएसटी से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक,एअर स्ट्राइक सब ऐसे ही निर्णय हैं।लेने के देने भी पड़ सकते थे,यदि असफलता मिलती तो।पाक के मामले में पाक क्या करेगा,दुनिया क्या करेगी ? इन आशंकाओं से भयभीत रहते तो ये साहसिक निर्णय भारत नहीं कर पाता।व्यापारियों की कही जाने वाली पार्टी की सरकार द्वारा नोटबंदी ओर GST भी आत्मघाती क़दम ही तो कहा जाएगा ना।

हाल के छापों से कांग्रेस थोड़ी परेशान तो ज़रूर होगी।भारत के चुनाव आकार में यह राशि बहुत बड़ी तो नही है पर बहुत छोटी भी नही है।पर चुनाव के बाद इस प्रकरण में जो केस चलेंगे उसमें से निकलना अब आसान नहीं है।जेलों ने अब राजनेताओं के घर देख लिए हैं।

सरकार की निष्पक्षता पर सवाल तो ज़रूर उठेगा।चुनावों के धुरंधर लड़ाके यह ज़रूर फुसफुसा रहे होंगे की बेइमानी के इस दोर में मोदी जी आपने ईमानदारी तो नहीं दिखाई।भविष्य के लिए कई भाजपा नेता भी आशंकित हो सकते हैं।कुछ भी हो यह तो तय है की लड़ाई तो अनेतिकता के ख़िलाफ़ है,लड़ाई का आधार नैतिक अनैतिक कुछ भी हो सकता है।आगे घात प्रतिघात भी होंगे।पर भारत की जनता जानती है की इस घात प्रतिघात में भारत के चुनावों में घुन की तरह घर कर चुका काले धन का प्रभाव विराट से न्यूनतम हो सकेगा जो अन्यथा चुनाव आयोग के लाख प्रयासों के बाद भी नियंत्रण में नही आ पा रहा है।

यह भी सच है की काले धन से चुनावों को प्रभावित करने का श्रेय भी परिस्थितिजन्य साक्ष्य के सिद्धांत के अनुसार उसी दल को जायेगा जो आज़ादी के बाद एक लम्बे अरसे तक निर्बाध शासन करता रहा हो।जो बोया है युगों के बाद भी  भाावी पीढ़ी को कुछ तो दंड भोगना ही पड़ेगा ना।

फ़िलहाल तो खाज में कोढ यह है कि भोपाल के छापों के बाद चुनाव आयोग ने राजस्व विभाग को बुलाकर निर्देश दिये हैं की वह चुनाव में काले धन के उपयोग को रोकने के लिए कड़ाई से प्रयास करे।

भारत का जन-मन तो यही चाहता है की भारत का लोकतंत्र काले धन की छाया से जल्दी से जल्दी मुक्त हो
।भारत की चेतना ने कमर के नीचे प्रहार करने के भीम के कृत्य को अनैतिक मानते हुए भी अधर्म नही माना।


भीमा की शहादत पर “हम भारत के लोगों “ का जन संकल्प

एक ओर शहादत !

ना यह पहली थी ना आख़िरी होगी।सवाल यही है कि वो कौन सी शहादत होगी जो आख़िरी होगी।बस्तर में चुनाव प्रचार करना घोषित ख़तरा है।फिर भी भीमा मंडावी जैसे सेंकडो राजनीतिक कार्यकर्ता यह करते हैं।भीषण ख़तरों के बीच ऐसे लोकतांत्रिक कर्म करते रहने की प्रेरणा ओर साहस  ही उम्मीद जगाता है एक दिन माओवादी आतंक को परास्त होना ही पड़ेगा।

पर यह तो भविष्य की बात है।भीमा मंडावी की घृणित हत्या पर आज मैं किस से प्रश्न पूछूँ ?नक्सलियों तक तो पहुँचने का रास्ता मुझे नहीं मालूम।उनके फ़ोन ,फ़ेसबूक कुछ भी नहीं मालूम।पर कुछ तो लोग होंगे जो धूर जंगल में रहने वाले नक्सलियों को रसद पानी ,हथियार से लेकर रणनीति बनाने में मदद करते होंगे ?ओर ये लोग तो शहरों में ,महानगरों में ,राजधानियों में रहते होंगे।विश्विद्यालयों,कोर्ट-कचहरी,मीडिया में काम करते होंगे।मैं इन्हीं से प्रश्न पूछना चाहता हूँ।

बहुत सरल प्रश्न हैं मेरे ।  भारत में बिना लाइसेंस का हथियार रखना क़ानून अपराध है।क्या आप लोग उस किताब को मानते हैं,जिसमें यह क़ानून लिखा है ? यदि हाँ तो आप उनकी वकालत कैसे कर सकते हैं जो आधुनिक स्वचालित हथियारों का ज़ख़ीरा लेकर शांत ओर सुंदर जंगलों में राक्षसी राज्य स्थापित कर रहे हैं।ओर यदि आप उनका समर्थन करते हैं तो फिर आपको शहरी नक्सली शब्द से सम्बोधित करना क्यों ग़लत है ? फिर भीमा से लेकर झीरम के शहीदों तक की वीभत्स हत्या  के सह अपराधी आपको भी क्यों ना माना जाये ? एक मनुष्य शरीर की हत्या का ही सवाल हो तो आप सह अपराधी हैं ।किंतु पुलिस की गोली से मरे या नक्सलियों की गोली से मरें,मरना तो वनवासियों को ही है, ऐसी जटिल परिस्थिति पैदा करने के मुख्य आरोपी तो आप ही हो ना ?

आप ही हो ना जो अभिव्यक्ति की आज़ादी,महिलाओं का सम्मान,बच्चों के बचपन  ओर मानव मात्र के अधिकार की लड़ाई लड़ते हो।आप ही हो ना जो संविधान की रक्षा के सजग प्रहरी बनते हो। इन संदर्भित मुद्दों  पर  भीमा  की मासूम पत्नी, अबोध बच्चों,बुज़ुर्ग  माँ  बाप,के अधिकार हनन के दोषी आप नहीं हो क्या  ? उन वनवासियों जो चुनाव के माध्यम से अपनी सरकार चुनना चाहते हैं,अपने दलों  के उम्मीदवार के प्रचार के लिए जनता के बीच जाना चाहते हैं उनके संवेधानिक अधिकारों के लिए आप  जब  षड्यंत्रकारी चुपी  ओड लेते हो तो सच में आप देश के सबसे बड़े शत्रु नज़र आते हो।

क़सम भीमा ओर झीरम जैसे अनेको शहीदों की एक दिन हम भारत के लोग  आपके बेनक़ाब कर ही देंगे ओर  आपकी कुत्सित,राक्षसी प्रवृति  जो अलगाव वाद ,आतंकवाद को अपना अस्त्र  साधन  मानती है, के  जड़-मूल  से उन्मूलन  के साथ  अपने भीमा के बस्तर को ,भीमा के भारत को,भीमा के  लोकतंत्र को  पुनः एक नई आभा के साथ
प्रस्थापित  करेंगे।

युद्ध  क्षेत्र अब केवल बस्तर  नहीं होगा, पूरा भारत होगा। विश्वविद्यालयों के परिसर,कोर्ट रूम,मानवाधिकार ओर महिला आयोगों के कार्यालय, टीवी चेनलों के बहस स्थलों से लेकर पत्रकारों की कलमों तक,हर उस जगह  जो आपके षडयन्त्र स्थल हैं  वहाँ हम भारत के लोग जो मानव मात्र से प्यार करते हैं,जो विविधता में  एकात्मता  का दर्शन करते हैं ,जो अपनी आंतरिक विषमताओं,कमज़ोरियों को लोकतंत्र के उपकरणों से हल  करना जानते हैं,आपको बेनक़ाब करेंगे,आपको परास्त करेंगे।

भीमा की शहादत पर  हम भारत के लोगों का यही जन संकल्प है।


Friday 5 April 2019

लोकतंत्र के पर्व -मेरी दृष्टि ,मेरी अनुभूति (4)

गुणात्मक मतदान के लिए “आम मतदाता शक्ति” सक्रिय हो 


प्रश्न थोड़ा अटपटा है।थोड़ा नहीं शायद बहुत ज़्यादा अटपटा है।क्या आम मतदाता को चुनाव लड़ाने की सक्रिय भूमिका में आना चाहिये ?

सामन्यत: प्रत्याक्षी चुनाव लड़ता है,राजनीतिक दल चुनाव लड़ता है  ओर राजनीतिक दल का कार्यकर्ता
चुनाव  लड़ाने की भूमिका में  रहता है। बोलचाल की भाषा में भी इसी आशय के शब्द प्रयोग होते हैं।

चुनाव  के बाद आने वाली सरकार से आम मतदाता के जीवन में बड़ा परिवर्तन आता है।सरकार के कार्यों, कार्यशैली  ,नीति ओर निर्णयों का असर बहुत व्यापक होता है। कई बार आम आदमी यह सोचता है की मुझे सरकार से क्या  मतलब ? अपनी मेहनत से दाल रोटी कमाता हूँ तथा  अपने में मस्त रहता हूँ ।सामन्यत: वे लोग जो शासकीय सेवा में नहीं हैं  तथा जिनका व्यापार व्यवसाय सरकार के साथ नहीं होता है  उनकी सोच भी यही रहती है।इतना ही नहीं सरकारी व्यवस्था का छोटा कर्मचारी भी सरकारों से रोज़मर्रा के काम में अप्रभावित रहते हैं।

परंतु थोड़े ही व्यापक नज़रिए से सोचें तो हम पाते हैं की शिक्षा,स्वास्थ्य, बिजली,पानी सड़क,यातायात, क़ानून व्यवस्था से लेकर रोज़गार के अवसर,महँगाई पर्यावरण,जैसी कई बातें  हमारे जीवन को सरल या दुष्कर बनाती हैं। यहां तक की  सरकार की नीतियों के कारण जीविकोपार्जन के लिए हमारे व्यापार व्यवसाय पर भी अनुकूल या प्रतिकूल असर पड़ता है।इतना ही नहीं  आंतरिक ओर बाह्य सुरक्षा ,विदेश नीति , दुनिया में भारतियों का सम्मान,विश्वसनीयता जैसे कई मुद्दे होते हैं जो प्रत्यक्ष,अप्रत्यक्ष रूप से कम  या ज़्यादा  हर देशवासी को  उसके वर्तमान या भविष्य को प्रभावित करता है।

इसलिए अच्छी सरकार आए,काम करने वाली सरकार आए,भ्रष्टाचार  को नियंत्रित करने वाली सरकार आए,देश का विकास करने वाली सरकार आए,देश की सुरक्षा को मज़बूत करने वाली सरकार आए,देश की अर्थ व्यवस्था को मज़बूत करने वाली सरकार आए,देश के सम्मान को बढ़ाने वाली सरकार आए, लोकतंत्र  में हर मतदाता नागरिक की यह ज़िम्मेदारी है। केवल मतदान करने मात्र से यह ज़िम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती है।एक समय जब बहुत कम मतदान होता था ,मतदान करना ही महत्वपूर्ण लक्ष्य माना गया किंतु अब जब मतदान प्रतिशत बड़ रहा है,गुणात्मक मतदान की ओर ध्यान खिंचना होगा। गुणात्मक मतदान के दो पहलू हैं।पहला है बहुत सोच समझकर ,अनेक बिन्दुओं का विश्लेषण कर किसे वोट देना है इसका निर्णय कर मतदान करना तथा  दूसरा है अपने  सम्पर्कित्त  वयस्क नागरिकों से भी अपने चिंतन को साझा कर  उन्हें भी व्यापक ओर दूरगामी सोच के साथ  मतदान के लिए प्रेरित करना।

इस प्रकार जब आम मतदाता जो किसी राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता नहीं है,वह भी स्वयं प्रेरणा से,बिना किसी निहित स्वार्थ के ,प्रयास पूर्वक  सम्पर्कित लोगों से चर्चा करता है ओर उन्हें भी गुणात्मक मतदान के लिए प्रेरित करताहै तो हम यह मान सकते हैं की आम मतदाता भी चुनाव लड़वाने की सक्रिय भूमिका में आ गया है।

सामन्यत: चुनाव लड़वाने का काम राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का माना जाता है।किंतु पुराने होते लोकतंत्र में समय के साथ कुछ अच्छी चीज़ें भी आती हैं ओर कई कमज़ोरियाँ भी घर कर जाती हैं।आज लगभग सभी राजनीतिक दल अपने अपने दलों में स्थापित हो चुकी विकृतियों से परेशान हैं।एक प्रमुख विकृति है गुटबाज़ी। सभी राजनीतिक दल शायद ही इस बात से इंकार कर सकेंगे की उनका दल इस बीमारी से पूर्णत: मुक्त है।कुछ दलों में ऊपर के स्तर पर है,कुछ दलों में नीचे के स्तर पर है,कुछ दलों में चहुँओर है।कुछ दलों में आंशिक है कुछ दलों में पूर्णता में है।कुछ दलों में इलाज हो सकने की स्थिति में है कुछ दलों में लाइलाज है।दूसरा है केड़र में नैतिक मूल्यों का ह्रास।जी हाँ बात तो कड़वी है पर है लगभग सच।केड़र विचारों के प्रति निष्ठावान हो तो भी व्यवहारिक धरातल पर वह वर्तमान या भविष्य के अपने लाभ-हानि के गणित में उलझ जाता हैतीसरा है जाती का विचार।कार्यकर्ता अपनी पार्टी की विजय तो चाहता है पर  अपनी जाती के हित  के साथ ।कई बार कुछ कार्यकर्ता जाती के नाम पर सेबोटेज़ भी कर जाते हैं।चौथा है धन का प्रभाव। यह राजनीतिक दलों के लिए सबसे गंभीर समस्या उभर कर आ रही है।आज सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं चुनाव प्रचार के लिए पूर्ण सुविधा चाहते हैं।इतना ही नहीं कुछ कार्यकर्ता तो मर्यादा को लाँघ कर चुनाव ख़र्चे का व्यक्तिगत उपयोग भी कर लेते हैं।ऐसी ही कई विकृतियों के कारण आज राजनीतिक दल कई परेशानियों ओर अनुचित दबावों के मध्य चुनाव संचालन के लिए मजबूर हैं।ओर ऐसा भी नहीं है की सारा दोष केड़र का है,इसकी शुरुआत कभी ना कभी ,किसी ना किसी कारण से दलों के शीर्ष से ही हुई है।ओर आज भी दलों के वरिष्ठ कहे जाने वाले नेताओं  की ओर से इन प्रवृत्तियों के प्रति स्वीकार्यता प्राप्त है।

एक ओर महत्वपूर्ण ओर लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यजनक तथ्य यह है की पुराने होते लोकतंत्र के साथ बहुसंख्यक मतदाताओं की आदतों को प्रमुख राजनीतिक दलों ने ही बिगाड़ दिया है।शराब,पैसा,जातिवाद से लेकर जाती,सम्प्रदाय के आधार पर फ़तवे चुनाव परिणामों को बहुत बड़ी मात्रा में प्रभावित करते हैं।इतिहास में इन बातों से लाभ ले चुके  दल भी आज इन बुराइयों के बोझ तले दब कर बुरी तरह हाँफ रहे हैं।

अच्छे व्यक्तियों को जिताने का सामर्थ्य आज भारत के राजनीतिक दलों में नहीं है।शायद ही कोई दल अपवाद हो।हर दल केवल उस व्यक्ति को टिकिट देना चाहता है जो जीत सकता है। “जीतने की सम्भावना” ही टिकिट मिलने का सबसे प्रमुख मापदंड बन चुका है।वैसे यह ग़लत नहीं है,पर क़ीस क़ीमत पर यह विचार का विषय अवश्य होना चाहिए।

ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के मूल मालिक आम मतदाता में से जागरूक,समझदार मतदाताओं की यह अहम् ज़िम्मेदारी बनती है की वे केवल मतदान के कर्तव्य तक सीमित ना रहकर अपनी सक्रिय भूमिका की ज़िम्मेदारी को समझें।बस उन्हें सावधानी यह रखना है की वे यह कार्य निष्काम भाव से करें ।चुनाव के बाद यदि वे अपने योगदान के प्रतिफल की अपेक्षा रखेंगे तो तो कोई गुणात्मक परिवर्तन उनके माध्यम से नहीं हो सकेगा।इसी प्रकार राजनीतिक दल किसे टिकिट दे इसमें भी उनकी रुचि नहीं होना चाहिए वे भी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं की विस्तारित (Extended team ) टीम ही कहलाएँगे।हाँ,प्रत्याशी घोषित होने के बाद मतदाता के अधिकतम मानदंडो को जो प्रत्याशी ओर दल पूरा करता हो उसको जिताने का प्रयास करना चाहिए।

ऐसे जागरूक मतदाताओं को निर्णय प्रक्रिया के लिए कुछ बिंदु तय करना चाहिए,जिनके आधार पर वे मतदान का निर्णय करेंगे।उदाहरणार्थ उम्मीदवार की योग्यता,सामर्थ्य ,सक्रियता,।राजनीतिक दलोंकी नीति,नियत,सिद्धांत,विचारधारा । राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व समूह,उसकी छबी,कार्य क्षमता,कार्यशैली,उनका विजन। दल ओर उम्मीदवारों का इतिहास।वैश्विक ओर देशीय संदर्भ में आज के भारत की  आवश्यकता ओर प्राथमिकताएँ।उन्हें कौन सा दल या दलों का समूह पूरा कर सकता है ? आज जब गठबंधन सरकारों का दौर है तो यह भी आकलन ज़रूरी है की कौन से गठबंधन स्थाई ओर प्रभावी सरकार दे सकते हैं।ओर राजनीतिक दलों के वादे ओर घोषणाएँ भी-वे  सुविचरित हैं या चुनाव जीतने के हथकंडे ।

जाग ग्राहक जाग की तरह जाग मतदाता जाग,लोकतंत्र की सफलता के लिए यह मूलमंत्र है।तो आइए संख्यात्मक के साथ साथ गुणात्मक मतदान के लिए आम मतदाता शक्ति के रूप में हर निर्वाचन क्षेत्र के हर गली ,मोहल्ले कालोनी में हम अपनी भूमिका तय कर स्वयं पहल कर सक्रिय हो जायें।जब तक अच्छे प्रत्याशी ओर अच्छे दल को जनता नहीं जितायेगी  दिग्भ्रमित राजनीतिक दल मजबूरीवश ही क्यों ना हो लोकतंत्र की मूल भावना से खिलवाड़ करते रहेंगे।वोटों के सौदे होंगे,वोटों के लिए षड्यंत्र होंगे ओर लोकतंत्र खोखला होता जाएगा।