Friday, 26 September 2025

अब जो होगा,वो नया होगा!



बातचीत के सुहाने मोड़ पर
फिर ठगे गए,फिर रीते रह गए,
फिर हम अकेले रह गए,
वो चले गए अचानक यों ,
जैसे तितली उड़ गई फूल से,
इंद्रधनुष लुप्त हो गया व्योम से,
मेघ उड़ गए ,
प्यासे रह गए खेत,
सूखी रह गई नदियां 
मुझे पता है,
फिर मिलना होगा,
फिर से बातें होगी ,
फिर से ऐसा ही हो सकता है,
जैसा आज हुआ,
या शायद ऐसा ना भी हो,
पर आज जो खो गया,
वह तो अब नहीं मिलेगा,
जो मिलेगा, 
वह कुछ ओर होगा,
कुछ ओर होगा।
पर वह तो निश्चित ही नहीं होगा ,
जो आज हो सकता था,
जो छूट गया,वो छूट गया
अब जो होगा वो नया होगा,
नया ही होगा।

लोकतंत्र के पर्व- मेरी दृष्टि, मेरी अनुभूति (3)

भारतीय लोकतंत्र की विचित्र विडम्बना :राजनीति ओर नेता हिक़ारत की नजर से देखें जाते हैं


भारतीय लोकतंत्र में कई गंभीर विडम्बनाएं हैं।लोकतंत्र में राजनीतक दल एवं आम जनता दो मत्वपूर्ण अंग हैं।राजनेता ओर कार्यकर्ता राजनीतिक दलों के अविभाज्य अंग है।मज़ेदार बात यह है कि लोकतंत्र में गहन विश्वास रखने वाले आम  भारतीय मतदाता के मन मे राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों के प्रति श्रद्धा और विश्वास का अभाव बहु प्रचारित है।नेता शब्द मजाक ओर जन हिकारत का प्रतीक है। यदि पति और पत्नी ,पिता और पुत्र या दो पड़ोसियों के बीच परस्पर विश्वास और श्रद्धा का अभाव हो ,दोनों एक दूसरे को हिकारत की नजर से देखते हों ,तो कल्पना कीजिए कि परिवार या पड़ोस कैसे चलेगा ? 

ओर एक विचित्रता भी दिखती है।मानसिक स्तर पर राजनेताओं,कार्यकर्ताओं के  प्रति हिकारत दिखती है किंतु
जब आम जनता नेताओं जिसमें जनप्रतिनिधि भी रहते हैं से मिलती है तो उनका बड़ा सम्मान करती है।उनके साथ ,उनके निकट दिखना चाहती है।उनके साथ फोटो खिंचाना चाहती है।उनके साथ सेल्फी लेकर  उसे बड़े उत्साह और सम्मान के साथ सोशल मीडिया पर प्रसारित करती है।

तो प्रश्न उठता है कि यह धूर विरोधाभासी परिदृश्य क्यों है ? इतने विरोधाभास के बावजूद लोकतंत्र सात दशकों से चल रहा है और मजे से चल रहा है।विकल्प के रूप में वामपंथी आंदोलन के एक हिस्से नक्सलवाद जो लोकतंत्र का घोर विरोधी है या दूसरा  हिस्सा लोकतांत्रिक वामपंथ  (जिसके दर्शन में क्रांति ओर प्रतिक्रांति है,ओर तब तक ही वह मजबूरी में लोकतंत्र को अपना रहा है) के अस्तित्व में होने के बावजूद जनता इसे भाव नही देती है। इतना ही क्यों ,हमे याद है कि भारतीय राजनीति की ताकतवर नेता इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस जो कांग्रेस (आई) के नाम से जानी गई को आपातकाल लगाने की ऐसी सजा मिली कि उस समय यानी 1977 में स्वयं इंदिरा जी को रायबरेली से हार का मुंह देखना पड़ा बल्कि पहली बार अपराजेय सी प्रतीत होने वाली कांग्रेस को लोकसभा में विपक्ष में बैठना पड़ा।ओर उसके बाद से जैसे मोत ने घर देख लिया हो कांग्रेस के लिए हार जीत अन्य राजनीतिक दलों के तरह एक सामान्य बात हो गई है। ओर इतनी सामान्य की नरेंद मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात भी कहने लगे (यद्यपि उसके आशय को लेकर उन्होंने बाद में स्पष्टीकरण भी दिया) ओर देश के एक बड़े वर्ग को "यह हो सकता है" ,"यह अविश्वसनीय नही है" ,ऐसा लगने भी लगा ।

कहने आशय यह कि भारतीय जनता लोकतंत्र को चाहती भी है और उसके सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान "वोट से सत्ता बदलने"  का बहुत कुशलता से ,बहुत मासूमियत से उपयोग भी कर लेती है।जनता ने जहाँ आपातकाल की सजा इंदिरा जी को दी वहीं पहली जनता पार्टी सरकार को जिसे उसने स्वयं चुनाव लड़ाकर (आपात काल के बाद का चुनाव जनता ने ही लड़ा था,यह माना जाता रहा है।) सत्तासीन किया और उसे जब आपस मे  लड़ते देखा तो उसे भी अपनी असली जगह दिखा दी।

ओर ऐसा भी नही है कि लोकतांत्रिक सरकारों की कोई उपलब्धियां नही है।ऐसा भी नही है कि सरकारों के कारण लोगो के जीवन मे कोई परिवर्तन नही आया है ।इसी जनता ने कई सरकारों को  दो,तीन या चार चार कार्यकाल भी दिया है।फिर भी व्यापक तौर पर राजनेताओं के प्रति जनता के मन में जो आदर का, विश्वास का भाव चाहिए वह नही है।नेता शब्द आज भी हेय बना हुआ है।

 हो सकता है यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण ना लगे । क्योंकि व्यवहारिक जीवन में कोई विपरीत प्रभाव नजर नही आता है।पर मुझे लगता है कि यह वैसा ही मामला है जैसे कोई व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ नजर आता है,पर चिकित्सकों की दृष्टी में वह पूर्ण स्वस्थ नही कहलाता है।क्योंकि रोग के बीज तो कहीं पड़े ही है,जो कभी भी गंभीर स्थिति पैदा कर सकते हैं।
मुझे लगता है कि आज मार्च 19 में जब (चुनाव)युद्ध शुरू हो चुका है तब यह विचार का विषय नही हो सकता है किंतु शांति काल में अवश्य इस विषय पर बहस की आवश्यकता है।

स्वस्थ और परिणामकारी लोकतंत्र के लिए इस विडम्बना के कारणों को खोजना भी चाहिए और उसे दूर करने के उपाय भी करना चाहिए । हो सकता है यह किसी बड़े रोग का निष्क्रिय कारण हों,पर अस्वाभाविक लक्षण  तो हैं ही। अस्वभाविकता कभी भी पूर्ण सन्तुष्टि नही दे सकती है।
















Thursday, 25 September 2025

पूंजीवाद के पोस्टर बॉय हैं ट्रंप



अमेरिका के राष्ट्रपति वैसे तो आजकल विश्व के सबसे चर्चित राजनेता हैं ओर यह चर्चे उनकी महानता के नहीं उनके सनकीपने के हैं।वे पूरी दुनिया को अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर धमकाकर सुधारना (जैसा कि वे स्वय मानते है)चाहते हैं।

जो भी हो पर मेरा मानना है कि यह केवल ट्रंप का व्यक्तिगत चरित्र नहीं है।वास्तव में यह "पूंजीवाद" का वीभत्स चेहरा है जो नादान ट्रंप के कारण दुनिया के सामने बेनकाब हो रहा है।(हम गहराई से अध्ययन करेंगे तो हमें ध्यान में आएगा पूंजीवादी /साम्यवादी देशों के अनेक राजनेताओं का यही चरित्र रहा है बस वे ट्रंप की तरह वेबकूफी से दुनिया के सामने बेनकाब नहीं हुए है)

पूंजीवाद की मूल अवधारणा यही है कि दुनिया की सारी ताकत पूंजी में छुपी है।पैसा ही भगवान है।आदमी जो भी कुछ अच्छा बुरा करता है पैसे के लिए करता है।पैसा ही वह आखिरी चीज है जो मनुष्य के जीवन में खुशियां भर सकता है।ओर इसलिए पूंजीवाद अधिक से अधिक पैसा कमाना चाहता है।मन ,बुद्धि,आत्मा का कोई अस्तित्व पूंजीवाद नहीं मानता।वह हर सही गलत तरीके से पैसा कमाना चाहता है।

इसका सटीक उदाहरण है महान अमेरिकी (?)राष्ट्रपति ट्रंप के द्वारा हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 80 वे अधिवेशन में दिया गय भाषण जिसमें वे बड़े अंहकार के साथ कहते हैं कि ग्रीन एनर्जी एक धोखा है तथा जलवायु परिवर्तन एक बड़ा झूठ है।

आज 25 सितंबर को एकात्म मानव दर्शन के प्रवर्तक स्वर्गीय दीनदयाल उपाध्याय की जन्म तिथि के अवसर पर वर्तमान वैश्विक संदर्भों में पूंजीवाद,साम्यवाद ओर भारतीय जीवन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो हम समझ सकेंगे कि क्यों भारत ही विश्व को शांति और विकास के मार्ग पर आगे ले जाने में सक्षम है।

Monday, 22 September 2025

प्रकृति का गूढ़ार्थ

तितली आई,भौंरा भी आया
फूल पर बैठे,
उसका मधु पिया,
ओर उड़ गए
फूल ने कभी तितली को फटकारा नहीं
फूल ने कभी भौंरे को भगाया नहीं,
फूल ने तितली को ना कभी चोर,डाकू कहा
ना ही कभी फूल ने भौंरे से मुक्ति चाही,
क्यों,पर क्यों ?
मैं असमंजस में हूं,
फूलों ने तितली ओर भौरों से मुक्ति पर कविता क्यों नहीं लिखी?.
मुझे तो यह भी नहीं पता कि फूलों ने ही तो तितली को नहीं बुलाया था,
फूलों ने ही तो भौरों को नहीं बुलाया था?
कभी कभी लगता है ,
फूलों की सुंदरता बहुगुणित हो जाती है जब तितली उस पर मंडराती है,
सच शायद है कि तितली केवल लेती नहीं कुछ देती भी है,
जो दिखता नहीं पर होता है,
हमेशा होता है ,
लेना दिखता है,
देना दिखता नहीं
जो दिखता नहीं
वो भी होता है
यह प्रकृति का गूढ़ार्थ है
यही प्रकृति है।
- विवेक सक्सेना

Friday, 3 July 2020

चीन को उतना पीछे हटना होगा जितना भारत चाहेगा।

आओ हम बात करें।
दिनांक-04 जुलाई 2020।


कल पूरी दुनिया आश्चर्य चकित हो उठी।
भारत तो गर्वान्वित था ही।भीषण दहाड़ से जितना डर पैदा होता उससे कई गुना डर भारत के प्रधानमंत्री के अचानक लद्दाख दौर से चीन ओर पाकिस्तान की सरकार और सेना में व्याप्त हो गया।उसका परिणाम भी तुरन्त परिलक्षित हुआ।चीन ओर पाकिस्तान में उच्च स्तरीय बैठकें प्रारम्भ हो गई,वहाँ घबराहट फेल गई।

भारत ने अपना दृढ़ निश्चय व्यक्त कर दिया है अब चीन को तय करना है उसे सदैव सदैव के लिए धोखेबाजी छोड़ना है या युद्ध करना है।

हमारे यहाँ कहावत है कि काठ की हांडी बार बार नही चढ़ती है।चार कदम का अतिक्रमण करना फिर लंबी थकाऊ बातचीत के बाद दो कदम पीछे चले जाना और इस प्रकार दो कदम जमीन पर कब्जा कर लेना।यह चाल अब भारत समझने लगा है।इसलिए भारत को अब बातचीत में रुचि नही है।वह ठोस क्रियान्वयन चाहता है।

अब चीन को उतना पीछे हटना होगा जितना भारत चाहेगा,अन्यथा भारत तो युद्ध के लिए तैयार है।अब चीन की बदमाशी भरी चतुराई नही चलेगी,यह तो तय है।

जब आप युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हो तो युद्ध की संभावना बहुत कम हो जाती हैं।पर इस समय दुनिया युद्ध से बचना नही चाहती है।

दुनिया पूरे जगत के लिए खतरा बन रहे चीन में एक निर्णायक परिवर्तन चाहती है।केवल शी जिनपिंग की सत्ता की समाप्ति नही बल्कि उस विचारधारा में बदलाव चाहती है जिसमें से शी जिनपिंग पैदा होते हैं।और लोकतंत्र ही उसका माध्यम है।चीन को लोकतंत्र की ओर जाना ही होगा। आज नही तो कल।ओर इसके लिए चीनियों को पर्याप्त कीमत भी चुकानी होगी।
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*"जन संवाद"*
सकारात्मकता समग्रता संतुलन सौम्यता
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Friday, 3 May 2019

लोकतंत्र के पर्व -मेरी दृष्टि, मेरी अनुभूति (7)

लोकतंत्र की खूबसूरती बनाम विडम्बना 
संदर्भ - कन्हैया और दिग्विजय सिंह 


लोकतंत्र यक़ीनन बहुत खूबसूरत है. किन्तु लोकतंत्र  में होने वाली हर चीज खूबसूरत होती ही है यह भी सच नहीं है. लोकतंत्र की खूबसूरती उसके लचीलेपन में है, उसकी नजाकत में है. हिंदुस्तान के इतिहास  में केंद्र और राज्यों के चुनाव में कई बार ऐसे मौके आये हैं जब मजबूत से मजबूत राजनेता के नेतृत्व में चल  रही सरकार का वोट  के माध्यम  से भोली सी दिखने वाली जनता ने  बड़ी सहजता से तख्ता पलट दिया. मैं  इसे लोकतंत्र की नजाकत ही कहना चाहूंगा.


पर कभी कभी इस खूबसूरत लोकतंत्र में गहरी विडंबनाओं से भी दो चार होना पड़ता है. तब मन बहुत खिन्न हो जाता है. 17 भी लोकसभा के लिए होने जा रहे चुनाव में भी दुर्भाग्य से ऐसे प्रकरण विद्यमान हैं.


हर चुनाव में कई दिग्गज मैदान में होते हैं, इनमें  राजनेता तो  होते ही हैं, बाहुवली, धनबली तथा ख्यातिबली (सेलिब्रेटी ) भी होते हैं और कई  बार एक अदना सा उम्मीदवार उन्हें चुपचाप जमीन चटा  देता है. और तब लोकतंत्र  की  मुस्कराहट मन  मोह लेती है.पर ऐसा हमेशा नही होता है ।कई करणो से कई बार अपराध जगत के सरताज भी निर्वाचित हो जाते हैं।उस समय लोकतंत्र की लाचारी ध्यान  में आती है ।


17 वी लोकसभा में भी दो ऐसे उम्मीदवार खड़े हैं जो राष्ट्र के गौरव ओर स्वाभिमान पर आघात करने वाली शक्तियों के आइकान हैं।पहले हैं कन्हैया कुमार जो बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे हैं।तथा दूसरे हैं दिग्विजय सिंह जो कांग्रेस के रणनीति कार हैं तथा भोपाल से चुनाव लड़ रहे हैं।कन्हैया कुमार जेएनयू में उस भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे जो “भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह”  , “भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी जंग चलेगी ,कश्मीर की आज़ादी तक जंग चलेगी जंग चलेगी” जैसे नारे लगा रहे थे।यही उनकी ख्याति का कारण भी है ।दिग्विजय सिंह वैसे तो ख्यातनाम राजनेता हैं।स्वनाम धन्य हैं।कई बातें हैं उनके बारे में कहने के लिए।पर यहाँ जो उल्लेख कर रहा हूँ ,वो है “हिन्दू आतंकवाद” की नई थ्योरी को प्रस्थापित करने की उनकी प्रतिभा ।उनकी इस हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी को पुष्ट करने के लिए कई गहरे षड्यंत्र भी रचे गए यह भी सम्भावना व्यक्त हुई है।इन षड्यंत्रों में कौन सहभागी थे अभी कहना मुश्किल है किंतु भविष्य में जब कभी पर्दा हटेगा देश के लिए बड़े शर्म की बात होगी।फ़िलहाल तो दिग्गी राजा भोपाल से दिल्ली जाने के लिए संघर्ष रत हैं।


कन्हैया कुमार ओर दिग्विजय सिंह चुनाव हारेंगे या जीतेंगे कहा नही जा सकता है।हार भी सकते हैं ओर जीत भी सकते हैं।केवल विचारधारा के आधार पर चुनाव होता तो इनकी ज़मानत जप्त होना तय थी।किंतु जाती,धन,प्रौपेग़ेंडा जिसे दिग्गिराजा ने ही शब्द दिया था “मेनेजमेंट” से चुनाव जीते जाते रहें हैं।


आजादी के 7 दशक बाद जनता बहुत परिपक्व हो चुकी है  ऐसा माना  जाता रहा है. जनता जनार्दन है. उसका निर्णय सर आँखों पर. पर मैं तो इतना ही कहना चाहता हूं की चुनाव परिणाम के बाद जो होना होगा वह  होगा पर आम देश प्रेमी जनता के लिए तो ऐसे लोग चुनाव लड़  सकते हैं, यही बड़ी विडम्बना है. 


Thursday, 2 May 2019

अभी चुके तो चूकते ही जायेंगे

मसूद अजहर वैश्विक आतंकवादी घोषित हो गया. आश्चर्य है भारत की प्रमुख राजनितिक पार्टी के अध्यक्ष का कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. अन्य राजनितिक दलों  से कैसे उम्मीद करें? 

जनता राहुल की मजबूरी समझती है. युद्ध क्षेत्र में प्रतिद्वंदी  कीतारीफ़ कैसे की जा सकती है?  पर तारीफ़ करना जरुरी कहाँ हैं?  सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट पर एयर स्ट्राइक की भी तो तुरंत सीमित तारीफ कर के कुछ समय बाद प्रमाण मांगना शुरू कर दिए थे. सरकार की नहीं पर सेना की तारीफ तो की थी. अभी भी विदेश विभाग के ब्यूरोक्रेट्स की तारीफ कर देते, अमेरिका को श्रेय दे देते, कुछ नहीं तो अब होगा न्याय की तर्ज पर चीन ने न्याय किया है कहते हुए असली श्रेय उसे दे देते.


लगता है की कांग्रेस के वॉर रूम के लड़ाके थक गए हैं . एक लड़ाके तो भोपाल में सीधे "हिन्दू आतंकवादी (? )"के खिलाफ युद्ध रत हैं. स्वाभाविक है उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती थी. किन्तु बाकी लोग कहाँ हैं?  और  यह कोई आकस्मिक होने वाली एयर स्ट्राइक तो थी नहीं. 1-2दिन पहले से खबर थी. और चीन दूतावास से तो राहुल जी के भी सम्बन्ध हैं. वहां तो उनका आना जाना हैं. उन्ही से पूछ लेते क्या होने जा रहा है?


हाँ यह जरूर हो सकता है की दिल्ली के लड़ाके सुप्रीम कोर्ट में व्यस्त हों. आखिर जब शहजादे ही घीरे  हों तो रणनीति यहीं कहती है की सबसे पहले उन्हें ही बचाया जाएं. दीक्कत तो यहीं है की शहजादे अभी युद्ध करना सिख रहे हैं. अभी भी छोटी बड़ी गलतियां कमोबेश रोज हों जाती हैं. तो किधर किधर ध्यान दें महारथी.अब सुप्रीम कोर्ट का भरोसा रहा नहीं. कब क्या न्याय कर दें. अब होगा न्याय की तर्ज पर नागरिकता पर कोई फच्चर फंस गया तो क्या होगा?  जमानत पर पहले से हैं.अवमानना प्रकरण में ऐसे कोई कोर्ट व्यवहार करता है क्या?


शायद लड़ाके सोच रहे होंगे अब ज्योतिषियों की ही बातें मान लें. अभी दिन अच्छे नहीं चल रहे है. इंग्लैंड तक के कोर्ट माल्या और नीरव को छोड़ नहीं रहे हैं, नहीं तो कुछ बड़े शस्त्र  मिल जाते. भारत के कोर्ट भी न्याय करने पर तुले हैं. ज्योतिषियों के अनुसार कुछ दिन रुक जाएं तो उसीमे भला है. 23 मई  के बाद सबका जबाव दें देंगे. सत्ता है तो सब कुछ है. तब अच्छे से जवाब दें देंगे.


ख्याल तो अच्छा है पर जनता परीक्षा के बाद उत्तर पुस्तिका में चार पन्ने जोड़ने को तैयार नहीं है. परीक्षा तो 23 के पहले के पाठ्यक्रम  पर ही होगी और मूल्यांकन भी मॉडल आंसर  के आधार पर.

अभी चुके तो चूकते ही जायेंगे.